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मई 13, 2020

हक़


हटा दिए हैं मैंने खिड़कियों से
गहरे रंग के पर्दे
बेरोकटोक आता है अब
मुस्कुराता हुआ सूरज
शरमाता हुआ चांद।
मुझे मंज़ूर नहीं हवाओं का तुमसे गुजरकर पहुंचना मुझ तक
मंज़ूर नहीं कि कोई तय करे मेरे हिस्से की धूप
मेरे आंगन की बारिशें
मेरी चाय की शक्कर
मेरी लिपस्टिक का कलर

नहीं देना है मुझे अब
मुस्कुराने और गुनगुनाने का हिसाब
उदासियों और खामोशियों का जवाब
ज़िन्दगी और मेरे दरमियां
अब कोई बिचौलिया न हो...

अगस्त 30, 2018

सीली सीली हवा हुई




जाने कैसी ख़ता हुई
जिसकी हमको सज़ा हुई।

ज़ुर्म ज़रा जो पूछा तो
दुनिया हमसे ख़फा हुई।

हमने कब खुशियां मांगी
दर्द हमारी दवा हुई।

उन्हें मिली उजली रातें
हमें शबे-ग़म अता हुई।

जान गई दीवानों की
माशूकों की अदा हुई।

फूलों की आंखें रोईं
सीली सीली हवा हुई।

बंदों की फिर क्या हस्ती
जब उस रब की रज़ा हुई।

सितंबर 02, 2014

खुद से प्यार करती औरतें



लोगों के लिए अजूबा हैं
खुद से प्यार करती औरतें।

औरत भी पैदा होती है उसी तरह
जिस तरह आता है हर कोई इस दुनिया में।
मगर धीरे-धीरे...
साल-दर-साल...
वह बनती रहती है औरत
जिसकी देह संवारती है कुदरत
और हम मांजते हैं मन को
बड़ी मेहनत से
संस्कारों से सजा-संवार कर।
अधिकार शब्द के कोई मायने नहीं उसके लिए
वह रोज़ रटती है कर्तव्य का पाठ।
उसके भीतर समुन्दर है
मगर वह बैठी है साहिलों पर
किसी लहर के इंतज़ार में।
वह सबके करीब है, बस खुद से अलहदा।

एहतियात के बावजूद
उग ही आती हैं कुछ आवारा लताएं
जो लिपटती नहीं पेड़ों से
फैल जाती हैं धरती पर बेतरतीब।
अपने आप पनप जाती हैं कुछ औरतें
जो प्रेम करती हैं खुद से,
किसी को चाहने से पहले।

वह दिल के टूटने पर टूटती है
बिखरती नहीं।
चांद तारों की ख्वाहिश नहीं उसे
वह चलना चाहती है धरती पर पैर जमाकर।
पहली बारिश में नहाती है,
दिल खोलकर लगाती है ठहाके।
खुद से प्यार करती औरत,
बार-बार नहीं देखती आईना।

छुप-छुप कर हंसती है अच्छी औरत
कनखियों से देखती है उसकी छोटी स्कर्ट।
कभी उससे डरती, कभी रश्क करती
उसके संस्कारों पर तरस खाती हुई
घर ले आती है एक नई फेयरनेस क्रीम।
शाम छह बजे धो लेती है मुंह
संवार लेती है बाल,
ठीक कर लेती है साड़ी की सलवटें।
ठहरी हुई झीलों के बीच
झरने की तरह बहती हैं
खुद से प्यार करती औरतें।

औरों के लिए फ़ना होती औरत
प्रेम के मायने नहीं जानती।
प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें
इस दुनिया का वजूद रहेगा।

जून 27, 2014

हिज्र का मौसम बुरा था



चांद खिड़की पर खड़ा था
मगर अंधेरा बड़ा था

चांदनी थी कसमसाती
रात का पहरा कड़ा था

उन चरागों को कहें क्या
ज़ोर जिनका इक ज़रा था

जब सुलगती थी हवा भी
हिज्र का मौसम बुरा था

पुराना इक ख़त गुलाबी
मेज़ पर औंधा पड़ा था

टीस रह रह कर उठी थी
जख्म अब तक भी हरा था

नींद पलकों से उड़ी थी
रंग ख्वाबों का उड़ा था

इस अंधेरी रात से पर
भोर का सपना जुड़ा था

अप्रैल 09, 2014

क्या अब भी लिखी जाती है प्रेम कविता?



आजकल जब भी नज़र आती है कोई प्रेम कविता
उसे बड़े चाव से ऐसे पढ़ती हूं
मानो वह प्रेम का आखिरी गीत हो।

क्या अब भी लिखी जाती है प्रेम कविता?

आजकल किराने की दुकान की पर्ची में
एक-एक सामान के दाम को मिलाती हूं
संभाल कर रखी पिछली पर्चियों से
और गुणाभाग करती हूं
उस बचत के पैसों से
जिसमें सेंध मार दी है
महीने के राशन ने।
हर बार फल खरीदते वक्त सोचती हूं
क्या वाकई जरूरी है सेहत के लिए फल खाना?
और सबसे सस्ते फल लेकर
पुचकार लेती हूं दिल और दिमाग दोनों को।
दाल-चावल के साथ सब्जी थोड़ी कम भी तो खाई जा सकती है!
शाम तक जमा-खर्च की एक सीडी चलती रहती है दिमाग में
क्या आजकल राशन, फल खरीदने वाले भी लिखते हैं प्रेम कविता?

घड़ी की सुइयों के साथ नाचती सुबह
देखने नहीं देती बच्ची के चेहरे की अकुलाहट
दो नन्हें पांव भी बिना थके साथ-साथ भागते रहते हैं
गले लगने की उम्मीद में।
बिस्कुट पकड़ने को भी कहां बढ़ते हैं
कस कर चुन्नी पकड़े हाथ
बाथरूम में गिरते पानी के शोर में
कहां सुनाई देती है
बंद दरवाजे पर नन्हें हाथों की थपकियां?
टाटा करते मायूस हाथों की ओर पीठ करके
बस की ओर दौड़ते लोग भी क्या लिखते हैं प्रेम कविता?

अखबारों में भी कहां हैं अच्छी खबरें
चांटों, घूंसों में, गालियों में, तालियों में
सिमट रही है राजनीति
ज्यादा से ज्यादा गिरने की होड़
ज्यादा से ज्यादा लूटने की होड़
नक्सलियों, आतंकियों से भिड़कर जान देने वाले
थोड़ी सी और ज़िन्दगी मांग रहे हैं
अपने बच्चों के लिए
उन्हें पता है, हथेली पर टिकी जान के बदले
दो वक्त जलता चूल्हा
और कितने दिन जल पाएगा
सरकार की भीख से!
रोडरेज, हत्या, बलात्कार की खबरों से भरा
अखबार पढ़ने वाले लोग भी क्या लिखते हैं प्रेम कविता?

तभी आजकल जब नज़र आती है कोई प्रेम कविता
तो मैं पढ़ती हूं उसे हर्फ़-हर्फ़
क्या मालूम यह आखिरी प्रेम कविता ही हो....

मई 23, 2013

चंद हाइकु

कुछ समय पहले कुछ हाइकु लिखे थे जो hindihaiku.wordpress.com पर प्रकाशित हुए थे। आज सोचा उसे यहां भी शेयर करूं। दिन के चार अलग-अलग समयों पर लिखे हाइकु पेश हैं:

1
भोर का राग
बुलबुल ने गाया
अब तो जाग

2
संदली दिन
लागे अमावस सा
पिया के बिन

3
सूरज लाल
सांझ की महफिल
जमी कमाल

4
रात नशीली
चांदनी में घोली थी
किसने पी ली?

कुछ और हाइकु लिखने की कोशिश की थी। विवाह के समय एक बिटिया की मनस्थितियों पर -


 
1
मां का आंचल
जीवन की धूप में 
जैसे बादल

2
कोई न भूले
बाबुल की गलियां
बाहों के झूले

3
बहना प्यारी
आएगी याद अब
बातें तुम्हारी

4
ओ री सहेली
जीवन ये लागे है
जैसे पहेली

5
जो था अंजाना
अब वो है अपना
कैसा फसाना

6
हुई परायी
जिस घर में खेली
अम्मा की जायी

7
ले अब चली
बगियन में पी की
नाजुक कली

8
गूंजेंगे गीत
मादक मिलन से
जागेगी प्रीत

अप्रैल 09, 2012

अधूरी कहानी का शीर्षक नहीं होता....



बहुत मामूली है मेरी कहानी।
इसके पात्र काल्पनिक नहीं,
किसी वास्तविक व्यक्ति या वस्तु से समानता
संयोग नहीं है।
मेरी कहानी में परियां नहीं हैं,
महल या राजकुमारी नहीं है।
किसी शायर का रूमानी ख्याल,
या प्रथम प्रेम का कोमल एहसास नहीं है।

मैं इस कहानी की पात्र
हजारों मील दूर गांव से
जीने की तलब लेकर
शहर आई हूं।
मेरी कहानी लिखी है,
ज़िन्दगी के खुरदरे सफहों पर
रात की रोशनाई से।
मगर यकीन है मुझे कि एक दिन
सूरज की कलम से भी
कुछ लफ्ज लिखे जाएंगे।
एक पूरी रात के बाद
सहर के भी किस्से आएंगे।

मेरा गांव
नीले पहाड़ों के देश में है।
उतरते झरनों से
बस एक फलांग भर है
मेरा कच्चा मकान।
जहां मेरी मां
मेरा इंतजार नहीं करती।
उसकी धुंधलाई आंखें
दूर से उड़ती गर्द देख लेती हैं।
उसके कानों में
मंदिर के घंटे सी बजती है
डाकिये की साइकिल की घंटी
और कागज के चंद टुकड़े
उसकी रातों की सियाही में
एक चम्मच रोशनी घोल देते हैं।

मेरे हाथों की लकीरें
रोज घिसती हैं बरतनों के साथ।
मेरी आंखों के काले घेरे
रात भर जगे
मेरे सपनों की कालिख है।
सपने जो जिंदा है मेरी तरह..
मेरी थकी आंखों में
अब भी दिखते हैं नीले पहाड़।
जीभ से उतरा नहीं है
चुराए हुए हरे मटर का स्वाद।
मेरी सांसों में ताजा है अभी
आजाद हवा की खुश्बू।
इनमें नहीं बसी है अब तक
जूठे बरतनों की बास।

एक दिन कमाए हुए सपने लेकर
मैं फिर लौटूंगी उन्हीं झरनों के पास।
उस कच्चे घर की चौखट पर
कभी तो मेरा इंतजार होगा।
लाड़ से अपने आंचल से
मेरा चेहरा पोंछेगी मां।
उसकी गोद में सर रखकर
उसकी छलकती आंखों से
मैं एक नया सपना देखूंगी
मैं एक बड़ा सपना देखूंगी....

मेरी इस कहानी को
कोई भी नाम दे दो
अधूरी कहानियों का कोई शीर्षक नहीं होता...

जनवरी 06, 2012

और एक ख़त..


गीली रेत पर उभरे हैं लफ्ज
तो लहरों के आने से पहले
सोचा लिख डालूं
एक ख़त
तुम्हारे नाम।
उन्हीं झरनों
उन्हीं पहाड़ों
उन्हीं खेतों के पते पर
फिर भेजूं कोई पैगाम।

मन करता है,
सर्दियों की किसी
अलसाई सी दुपहरी में।
पत्तो से छनकर
आंगन में बिखरती धूप में।
तुम्हारे आंचल का कोना,
आंखों पर रखकर
फिर से सो जाऊं।
और अंदर तक उतरे
फिर उसी धूप की गरमी
कि ठंडा पड़ा हर कोना गरमा जाए

उस आंगन से
इस आंगन तक
एक उम्र का फासला है
पर तुम ही बताओ
कि क्या बदला है?
यहां भी खिलती है
जूही की बेल
अक्सर मिल जाते हैं
कुछ टुकड़े धूप के
झरोखों से छन छन कर
आती है जिंदगी।
शहर की भीड़ में भी
सूना सा कोई गांव पलता है।
जुगनुओं की तरह
अंधेरे में कोई
ख्वाब जलता है।

जमीं और आसमां वही है।
पर कुछ है, जो नहीं है।
हर दुपहर जो बस्ता
मेरे कंधों से
उतारा करती थीं तुम,
उन कंधों पर
आज भी एक बस्ता है।
पर उसमें जो किताब है
वो बहुत भारी है।
किसी दिन साफ दिखते
तो कभी धुंधलाते हैं हर्फ।
हर वक्‍त होते हैं
सर पर इम्तिहान।
हर वक्‍त
कोई सवाल
अनसुलझा होता है।
जिंदगी की पाठशाला में
कोई अवकाश नहीं होता...