जनवरी 06, 2012

और एक ख़त..


गीली रेत पर उभरे हैं लफ्ज
तो लहरों के आने से पहले
सोचा लिख डालूं
एक ख़त
तुम्हारे नाम।
उन्हीं झरनों
उन्हीं पहाड़ों
उन्हीं खेतों के पते पर
फिर भेजूं कोई पैगाम।

मन करता है,
सर्दियों की किसी
अलसाई सी दुपहरी में।
पत्तो से छनकर
आंगन में बिखरती धूप में।
तुम्हारे आंचल का कोना,
आंखों पर रखकर
फिर से सो जाऊं।
और अंदर तक उतरे
फिर उसी धूप की गरमी
कि ठंडा पड़ा हर कोना गरमा जाए

उस आंगन से
इस आंगन तक
एक उम्र का फासला है
पर तुम ही बताओ
कि क्या बदला है?
यहां भी खिलती है
जूही की बेल
अक्सर मिल जाते हैं
कुछ टुकड़े धूप के
झरोखों से छन छन कर
आती है जिंदगी।
शहर की भीड़ में भी
सूना सा कोई गांव पलता है।
जुगनुओं की तरह
अंधेरे में कोई
ख्वाब जलता है।

जमीं और आसमां वही है।
पर कुछ है, जो नहीं है।
हर दुपहर जो बस्ता
मेरे कंधों से
उतारा करती थीं तुम,
उन कंधों पर
आज भी एक बस्ता है।
पर उसमें जो किताब है
वो बहुत भारी है।
किसी दिन साफ दिखते
तो कभी धुंधलाते हैं हर्फ।
हर वक्‍त होते हैं
सर पर इम्तिहान।
हर वक्‍त
कोई सवाल
अनसुलझा होता है।
जिंदगी की पाठशाला में
कोई अवकाश नहीं होता...

14 टिप्‍पणियां:

  1. जिंदगी की पाठशाला में
    कोई अवकाश नहीं होता...

    बहुत सही और बेहतरीन लिखा है आपने।

    सादर

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  2. .शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. जिंदगी की पाठशाला में कोई अवकाश नहीं होता
    छुट्टी के दिनो में इंतहान का अहसास नहीं होता।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर लिखा आपने .......
    बधाई.......
    मेरे ब्लॉग पढने और जुड़ने के लिए इस लिंक पे क्लिक करें...
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    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर दीपिका जी...
    कल की "नयी पुरानी हलचल" में आपकी इस रचना से हलचल मचेगी..
    बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  6. पहली दफा आपके ब्लॉग पर आया हूँ.
    आपको पढकर बहुत अच्छा लगा.
    सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

    जवाब देंहटाएं
  7. अनसुलझे सवाल दर सवाल- शायद यही जिन्दगी है.

    सुन्दर अभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं
  8. जिंदगी की पाठशाला में
    कोई अवकाश नहीं होता...
    बेहतरीन भाव संयोजन ...बहुत बढिया

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  9. सुन्दर भावपूर्ण लाजबाब संयोजन...

    जवाब देंहटाएं
  10. Ohh kya safgoi se likhti hain aap vina ji waah.
    मन करता है,
    सर्दियों की किसी
    अलसाई सी दुपहरी में।
    पत्तो से छनकर
    आंगन में बिखरती धूप में।
    तुम्हारे आंचल का कोना,
    आंखों पर रखकर
    फिर से सो जाऊं।....

    abhii ye sambhav nahi hai ..ab nahi lautega ek baar gaya pal...Kaash aapki ye ichha puri ho !
    aur jo basta aapke kandhe par .wiasa hi ek basta yahan har ek ke kandhe par hai...koi kubool karta hai koi nahi yahi farak hai.

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  11. मैं आपका नाम ऊपर गलत लिख गया हूँ दीपिका जी क्षमा प्रार्थी हूँ !

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  12. हर वक्‍त होते हैं
    सर पर इम्तिहान।
    हर वक्‍त
    कोई सवाल
    अनसुलझा होता है।
    जिंदगी की पाठशाला में
    कोई अवकाश नहीं होता.....
    ...waah! padhkar laga jaise aapne meri dil ki baat kah dee...
    sundar apni si ek kavita..

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