अगस्त 26, 2013

गरीब की लड़की


जब नन्ही उंगलियां
गंदे मटमैले धोती के टुकड़े से
गरम हंडिया पकड़
पसाती हैं भात
संतुलन में टेढ़ी हंडिया थामे
पकती उंगलियां
हड़बड़ी नहीं दिखातीं

पीती है धीमे धीमे
नथुनों से गर्म माड़ की खुश्बू
हंडिया नहीं छोड़ती
गरीब की लड़की
आखिरी बूंद के टपक जाने तक

एकटक हंडिया पर नजरें जमाए
सटकर उकड़ू बैठे
छोटे भाई-बहनों को आंख दिखाती है
और भात मांगते छोटे भाई को
थप्पड़ जमाती गरीब की लड़की
डाल देती है उसकी थाली में
अपने हिस्से का एक करछुल भात
जानती है
कि आज भी उसे
माड़ से मिटानी होगी भूख

म्युनिसिपैलिटी के नल से पानी भरते हुए
गरीब की लड़की
रोज नुक्कड़ से देखती है
स्कूल जाती लड़कियों को
उसे नहीं लुभाते
कड़क प्रेस की हुई स्कूल ड्रेस
या बार्बी वाले बैग
उसकी आंखें जमी हैं
बैग से झांकते लंच बॉक्स पर
ख्वाबों में देखती है
प्लास्टिक के हरे-नीले जादुई डिब्बे में
आलू के परांठे
वेजिटेबल सैंडविच

गरीब की लड़की
नहीं जानती बराबरी का हक
नारी सशक्तीकरण
उसे नहीं चाहिए आसमान
वह चाहती है थोड़ी सी जमीन
वह प्यार नहीं करती
उसे करनी है शादी
जहां वह दबाएगी पैर
बिछ जाएगी आदमी की देह तले
और खा पाएगी
पेट भर भात
शायद

अगस्त 12, 2013

कवि और कमली

कमली एक बार फिर से...


तुम श्रृंगार के कवि हो
मुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो।
अखबार के चटपटे पन्‍नों पर
कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।

तुम श्रृंगार के कवि हो
भूख पर, देश पर लिखना
तुम्हारा काम नहीं।
क्रांति की आवाज उठाने का
ठेका नहीं लिया तुमने।
तुम प्रेम कविता ही लिखो
मगर इस बार कल्पना की जगह
हकीकत में रंग भरो।
वहीं पड़ोस की झुग्गी में
कहीं कमली रहती है।
ध्यान से देखो
तुम्हारी नायिका से
उसकी शक्ल मिलती है।

अभी कदम ही रखा है उसने
सोलहवें साल में।
बड़ी बड़ी आंखों में
छोटे छोटे सपने हैं,
जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
तुमने नहीं देखा होगा।
रूखे काले बालों में
ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
अपनी कविता में
उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!

चुपके से कश भर लेती है
बाप की अधजली बीड़ी का
आग को आग से बुझाने की कोशिश
नाकाम रहती है।
उसकी झुग्गी में
जब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।

तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
मगर बंगलों के आदमखोर रईस
उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
उसकी झुग्गी के आगे
उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
वे उसे छूना चाहते हैं
भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्‍त।
सिगरेट की तरह उसे पी कर
उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।

उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
उन्हें परहेज नहीं,
उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!