अप्रैल 27, 2012

पति से बिछुड़ी औरत



पति से बिछुड़ी औरत
एक रद्दी किताब है
जो पढ़ी जा चुकी है
एक-एक पन्‍ना
और फेंक दी गई है दुछत्ती पर
धुंधला गए हैं उसके अक्षर
ज़िल्द के चिथड़े हो गए हैं।

पति से बिछुड़ी औरत
एक घायल सिपाही है।
उसके हथियार छीन लिए गए हैं
सिंदूर चूड़ियां बिछुवे,
इनके बगैर वह लड़ नहीं सकती।

उसे दिखाया नहीं गया
कोई और रस्ता।
उसके घर में
बाहर की ओर खुलने वाला दरवाजा
बंद हो गया है।
ढक दी गई है रोशनदान-खिड़कियां
परंपरा के मोटे परदों से।

पति से बिछुड़ी औरत
एक ज़िंदा सती है।
उसके सपनों का दाह-संस्‍कार नहीं हुआ
अपने अरमानों की राख
किसी गंगा में प्रवाहित नहीं की उसने
अब उसे कामनाओं की अग्नि-परीक्षा में
तप कर कुंदन बनना है।

पति से बिछुड़ी औरत
निगाहें नीची करके चलती है।
अपने कलंक से झुक गई है उसकी गर्दन
उसके खाते में पुण्य का बैलेंस इतना नहीं था
कि पति उसके माथे पर सिंदूर
और मुंह में आग रख सके।
अब उसे प्रायश्चित करना है उम्र भर।

पत्‍नी से बिछुड़ा आदमी
किसी बेस्ट सेलर का सेकेंड एडिशन है
नई जिल्द, नए कलेवर के साथ।
लोग देखते हैं उसे दिलचस्पी से
किसी खाली अलमारी में
उसे सजाने के ख्वाब देखते हैं।

पत्नी से बिछुड़ा आदमी
कर्मयोगी है,
वह संसार से भाग नहीं सकता
उसे जीवन पथ पर आगे बढ़ना है
नई उम्मीदों, नए हौसलों के साथ।
मृत्यु तो एक शाश्‍वत सत्य है
और... परिवर्तन प्रकृति का नियम।

अप्रैल 18, 2012

नदी..



मेरे भीतर मचलती है नदी
छुई मुई सी, सकुचाई सी
दुनिया के रंगों से भरमाई सी
छुओ तो चिहुंकती है
बेबात खिलखिलाती है
हर वक्‍त नया ख्वाब आंखों में लिए
अजनबी शहर से गांठ जोड़ती
जड़ों को सींचती, दुलराती।
अनजानी रवायतों से
सिहरती है नदी।

मेरे भीतर संवरती है नदी।
निखरती है चांद को देखकर
तारों की छांव में बहती नदी,
खुद से भी बतिया लेती है।
दिल में हिलोरें उठें,
तो चूम लेती है किनारों को
भले खामोश हो शहर
उफनती है नदी।

मेरे भीतर सुलगती है नदी,
सवाल पूछती है
जवाब मांगती है
रूठती है, झगड़ती है।
बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।
छीन लाती है आसमान से उसका रंग
इसकी लहरों में आग भी है।
कभी जंगल में
पलाश सी दहकती है नदी।

मेरे भीतर ठहरती है नदी।
कभी निढाल होकर
पत्थरों पर बिखरती है।
हरदम बहती हुई,
मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
वह नदी है, खुद संभलती है।
ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
हर रोज़ मेरे भीतर से
गुज़रती है नदी...

अप्रैल 09, 2012

अधूरी कहानी का शीर्षक नहीं होता....



बहुत मामूली है मेरी कहानी।
इसके पात्र काल्पनिक नहीं,
किसी वास्तविक व्यक्ति या वस्तु से समानता
संयोग नहीं है।
मेरी कहानी में परियां नहीं हैं,
महल या राजकुमारी नहीं है।
किसी शायर का रूमानी ख्याल,
या प्रथम प्रेम का कोमल एहसास नहीं है।

मैं इस कहानी की पात्र
हजारों मील दूर गांव से
जीने की तलब लेकर
शहर आई हूं।
मेरी कहानी लिखी है,
ज़िन्दगी के खुरदरे सफहों पर
रात की रोशनाई से।
मगर यकीन है मुझे कि एक दिन
सूरज की कलम से भी
कुछ लफ्ज लिखे जाएंगे।
एक पूरी रात के बाद
सहर के भी किस्से आएंगे।

मेरा गांव
नीले पहाड़ों के देश में है।
उतरते झरनों से
बस एक फलांग भर है
मेरा कच्चा मकान।
जहां मेरी मां
मेरा इंतजार नहीं करती।
उसकी धुंधलाई आंखें
दूर से उड़ती गर्द देख लेती हैं।
उसके कानों में
मंदिर के घंटे सी बजती है
डाकिये की साइकिल की घंटी
और कागज के चंद टुकड़े
उसकी रातों की सियाही में
एक चम्मच रोशनी घोल देते हैं।

मेरे हाथों की लकीरें
रोज घिसती हैं बरतनों के साथ।
मेरी आंखों के काले घेरे
रात भर जगे
मेरे सपनों की कालिख है।
सपने जो जिंदा है मेरी तरह..
मेरी थकी आंखों में
अब भी दिखते हैं नीले पहाड़।
जीभ से उतरा नहीं है
चुराए हुए हरे मटर का स्वाद।
मेरी सांसों में ताजा है अभी
आजाद हवा की खुश्बू।
इनमें नहीं बसी है अब तक
जूठे बरतनों की बास।

एक दिन कमाए हुए सपने लेकर
मैं फिर लौटूंगी उन्हीं झरनों के पास।
उस कच्चे घर की चौखट पर
कभी तो मेरा इंतजार होगा।
लाड़ से अपने आंचल से
मेरा चेहरा पोंछेगी मां।
उसकी गोद में सर रखकर
उसकी छलकती आंखों से
मैं एक नया सपना देखूंगी
मैं एक बड़ा सपना देखूंगी....

मेरी इस कहानी को
कोई भी नाम दे दो
अधूरी कहानियों का कोई शीर्षक नहीं होता...