सितंबर 20, 2012

चांद और ढिबरी



बुधिया को पसंद नहीं
अंधेरी रातें

जब घुप्प अंधेरे में
डर कर जगी मुनिया
देख नहीं पाती
मां की दुलार भरी आंखें
सांवले माथे पर
बड़ी सी लाल बिंदी
तो रो-रोकर
उठा लेती है
आसमान सिर पर
और बुधिया की नींद से बोझल आंखें
कातर हो उठती हैं

पारसाल तीज पर खरीदी
कांच की चूड़ियां भी
बस दो ही रह गई हैं।
चूड़ियों की खनक के बगैर
खुरदरी हथेलियों की थपकियां
मुनिया को दिलासा नहीं देतीं
काजल लगी बड़ी बड़ी आंखें
जब अंधेरे से टकरा कर लौट जाती हैं
मां के सीने से लगकर भी सोती नहीं
अंधेरी रातों में
कितना रोती है मुनिया

परेशान बुधिया
अपनी झोंपड़ी में
रात भर जलाती है ढिबरी
हवाओं से आग का नाता
उसकी पलकें नहीं झपकने देता
रात भर जलती ढिबरी
कटौती कर जाती है
बुधिया के राशन में

तभी उसे अच्छी लगती हैं
चांदनी रातें
जब चांद की रोशनी
उसकी थाली की रोटियों में
ग्रहण नहीं लगाती
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।