मई 24, 2012

कवि और कमली


 
तुम श्रृंगार के कवि हो
मुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो।
अखबार के चटपटे पन्‍नों पर
कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।

तुम श्रृंगार के कवि हो
भूख पर, देश पर लिखना
तुम्हारा काम नहीं।
क्रांति की आवाज उठाने का
ठेका नहीं लिया तुमने।
तुम प्रेम कविता ही लिखो
मगर इस बार कल्पना की जगह
हकीकत में रंग भरो।
वहीं पड़ोस की झुग्गी में
कहीं कमली रहती है।
ध्यान से देखो
तुम्हारी नायिका से
उसकी शक्ल मिलती है।

अभी कदम ही रखा है उसने
सोलहवें साल में।
बड़ी बड़ी आंखों में
छोटे छोटे सपने हैं,
जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
तुमने नहीं देखा होगा।
रूखे काले बालों में
ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
अपनी कविता में
उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!

चुपके से कश भर लेती है
बाप की अधजली बीड़ी का
आग को आग से बुझाने की कोशिश
नाकाम रहती है।
उसकी झुग्गी में
जब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।

तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
मगर बंगलों के आदमखोर रईस
उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
उसकी झुग्गी के आगे
उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
वे उसे छूना चाहते हैं
भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्‍त।
सिगरेट की तरह उसे पी कर
उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।

उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
उन्हें परहेज नहीं,
उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!

मई 12, 2012

औरत जब बनती है मां

मां तो हमेशा मां होती है, फिर उसके लिए मदर्ड डे के नाम पर एक दिन क्यों? इससे बेहतर कि हम उसे वह सम्मान दें जिसकी वह असली हकदार है। आज अपनी एक साल पुरानी एक कविता यहां शेयर कर रही हूं.......
 
चाहे न हो उसे,
पोथियों का ज्ञान।
उठने-बैठने,
बोलने, हंसने के सलीके
से हो अनजान।
पर सीख लेती है,
क्षण भर में एक जुबां
औरत जब बनती है मां।

उसका हंसना-रोना,
सब पहचानती है।
वह मां है,
हर बात जानती है।
उसकी एक आवाज पर भागती है,
मां उसकी आंखों से,
सोती है, जागती है।

जिन डगमग पांवों को,
वह चलना सिखाती है।
जब वे दौड़ जाते हैं,
वह पीछे रह जाती है।
उसे नहीं आती अंग्रेजी,
उनके दोस्तों में मिक्स-अप होना।
वह नहीं जानती,
कि एंबेरेसिंग होता है,
सब के सामने हंसना-रोना।

जब होते हैं बाल सफेद,
ज़िंदगी की धूप में।
आधुनिकता की डाई से
बच्चे रंगना चाहते हैं,
उसे नए रूप में।
जिनकी मूक भाषा भी,
कभी झट से समझती है।
आज उनकी बोली
अजनबी सी लगती हैं

अब अपनी परवाह
खुद कर सकते हैं बच्चे
ज़िंदगी से जूझ सकते,
लड़ सकते हैं बच्चे।
अंधेरे कमरे में
अपनी चारपाई पर पड़ी है
मां जो फिर से औरत बन गई है।