झोंपड़ी के टूटे टाट से
धूप की एक नन्ही किरण
तपाक से कूदी है
कच्ची अंधेरी कोठरी में
हो गई है रमिया की सुबह
दुधमुंहा बच्चा कुनमुनाया है
रमिया ने फिर उसे
थपकी देकर सुलाया है।
सूख चुका है पतीले और सीने का दूध।
रात को भरपेट नमक भात खाकर तृप्त सोए हैं
मंगलू और रज्जी।
कोने में फटे बोरे पर
कोई आदमी नुमा सोया है।
जिसके खर्राटों में भी दारू की बू है
मगर इस बार उसने
बड़ी किफ़ायत से पी है।
हफ्ते पुरानी बोतल में
नशे की आखिरी कुछ घूंट
अब भी बची है।
आज मंगलवार है,
हफ्ते भर रमिया की उंगलियों और
चाय की पत्तियों की जुगलबंदी
आज उसके आंचल में कुछ सितारे भरेगी।
जिनसे रमिया की दुनिया में
एक और हफ्ते रोशनी होगी
एक और हफ्ते बच्चों को मिलेगा
दो वक्त पेट भर खाना
एक और हफ्ते ख़ुमार में रह पाएगा
रमिया का पति
और रमिया का क्या?
एक और पैबंद की मांग करने लगी है
उसकी सात पैबंदों वाली साड़ी
अब तो सुई-धागे ने भी विद्रोह कर दिया है।
आज रमिया ने ठान ही लिया है
शाम को वह जाएगी हाट
और खरीदेगी पैंसठ वाली फूलदार साड़ी
दस के बुंदे
और एक आईना।
नदी के पानी में शक्ल देखकर
बाल संवारती रमिया
अपनी पुरानी शक्ल भूल गई है।
इतराती रमिया ने आंगन लीप डाला है
आज वह गुनगुना रही है गीत।
उसके पपड़ियाए होंठ
अचानक मुस्कुराने लगे हैं।
साबुन का एक घिसा टुकड़ा
उसने ढूंढ निकाला है।
फटी एड़ियों को रगड़ने की कोशिश में
खून निकल आया है।
लेकिन रमिया मुस्कुरा रही है।
बागान की ओर बढ़ते उसके पांवों में
जैसे पंख लगे हैं।
आज सूरज कुछ मद्धम सा है
तभी तो जेठ की धूप भी
चांदनी सी ठंडी है।
पसीने से गंधाते मजदूरों के बीच
अपनी बारी के इंतज़ार में रमिया
आज किसी और दुनिया में है।
उसकी सपनाई पलकों में चमक रहे हैं,
पीली जमीन पर नीले गुलाबी फूल
बुंदों की गुलाबी लटकन।
पैसे थामते उसके हाथ
खुशी से सिहर से गए हैं।
और वह चल पड़ी है
अपने फीके सपनों में
कुछ चटख रंग भरने।
उसके उमगते पांव
हाट में रंगबिरंगे सपनों की दुकान पर रुके हैं।
उसकी पसंदीदा साड़ी
दूसरी कतार में टंगी है।
उसने छूकर देखा है उसे, फिर सूंघकर।
नए कपड़े की महक कितनी सौंधी होती है न?
रोमांच से मुंद गई है उसकी पलकें
कितना मखमली है यह एहसास
जैसे उसके दो महीने के बेटे के गुदगुदे तलवे
और तभी उसकी आंखों के आगे अनायास उभरी हैं
घर की देहरी पर टंगी चार जोड़ी आंखें।
रमिया के लौटते कदमों में फिर पंख लगे हैं
उसे नज़र आ रहे हैं दिन भर के भूखे बच्चे
मंगलू की फटी नेकर
गुड़ियों के बदले दो महीने के बाबू को चिपकाए
सात साल की रज्जी
शराबी पति की गिड़गिड़ाती आंखें
उसने हाट से खरीदा है हफ्ते भर का राशन
थोड़ा दूध, और दारू की एक बोतल।
मगर अबकी उसका इरादा पक्का है,
अगले मंगलवार जरूर खरीदेगी रमिया
छपे फूलों वाली साड़ी और कान के बुंदे।
...जाने वह मंगल कब आएगा ?
जवाब देंहटाएंरमिया को कुछ तो बदलना होगा,
नहीं तो उसके नथुनों में दारू की गंध
यूँ ही समाएगी,
बच्चों की आँखें
आसमान की ओर ताकेंगी !
मगर अबकी उसका इरादा पक्का है,
जवाब देंहटाएंअगले मंगलवार जरूर खरीदेगी रमिया
छपे फूलों वाली साड़ी और कान के बुंदे।
बहुत सुंदर प्रस्तुति,बेहतरीन पोस्ट
होली की बहुत२ बधाई शुभकामनाए...
RECENT POST...काव्यान्जलि
...रंग रंगीली होली आई,
बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपको महिला दिवस और होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ।
सादर
सशक्त प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंवो सुबह कभी तो आयेगी....
इसी उम्मीद से शुभकामनाये प्रेषित करती हूँ....
शुक्रिया। आप सभी को भी होली की शुभकामनाएं। महिला दिवस तब तक सार्थक नहीं हो पाएगा, जब तक कि हम सिर्फ कामयाब महिलाओं की उपलब्धियां ही नहीं गिनाएंगे, बल्कि रमिया जैसी महिलाओं को भी सम्मान देंगे, जो वास्तविक शक्तिरूपा हैं, विपरीत परिस्थितियों में भी कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़तीं...
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना!
जवाब देंहटाएंमहिला दिवस की बधाईयाँ..
होली मुबारक!!
वाह, पढकर अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंप्रभावित करते भाव...... शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति..होली की शुभकामनायें..मेरे ब्लॉग filmihai.blogspot.com पर स्वागत है...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना, सच में ऐसी रचनाएं कभी कभी पढने को मिलती है।
जवाब देंहटाएंरमिया का दर्द बखूबी उकेरा है आपने। मार्मिक कविता।
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ ...रमिया के बहाने एक पूरी जिंदगी दर्दनाक दास्ताँ है आपकी ये कविता ...धन्यवाद ऐसी कवितायेँ लिखने के लिए ... बहुतों का दर्द है इसमें !..शायद मेरा बचपन भी है कहीं आपकी कविता में...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आनंद जी कि यह कविता आपको अपनी सी लगी।
हटाएंयही समानुभूति तो हमें इनसान बनाए रखती है...
..मैं दार्जिलिंग के एक चाय बागान से ही दिल्ली तक पहुंची हूं, इसलिए बहुत सी रमिया बचपन से देखने को मिलीं, जो कभी कभी कविताओं में उतर जाया करती हैं।
थोड़ा दूध, और दारू की एक बोतल।
जवाब देंहटाएंमगर अबकी उसका इरादा पक्का है,
अगले मंगलवार जरूर खरीदेगी रमिया
छपे फूलों वाली साड़ी और कान के बुंदे।
NICE POST WITH SOFT AND WORM FEELINGS
BASED IN SMELL OF EARTH.
AAPAKE IS NARM KINTU GARM AIHASAS KO PRANAM
sashakt rachna. sapno ka tootna fir bhi sapne dekhna shayad zindagi yahi hai. mahila diwas ki shubhkaamnaayen.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने...
जवाब देंहटाएंरचना का एक एक शब्द झकझोड़ कर रख देता है.....
बेहद सार्थक रचना...
शुभकामनाएँ.
बहुत अच्छा लिखा है आपने...
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावशाली रचना है ।
एक एक शब्द निःशब्द करता हुआ…
बधाई सहित आभार !
महिला दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
साथ ही
स्वीकार करें मंगलकामनाएं आगामी होली तक के लिए …
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♥होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार !♥
♥मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !!♥
आपको सपरिवार
होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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रमिया जैसे कितनी ही हैं जो चीख चीख के कह रही हैं की क्या एक दिन से ये दर्द मिटने वाला है ...
जवाब देंहटाएंपढ़ने के बाद से दिमाग़ में लगातार कुछ चल रहा है, सोच में कुछ पिघल रहा है... बधाई!!!
जवाब देंहटाएंkya kahu ki kya likha hai....sach bah raha hai kavita se....pahli baar padha or mureed ho gayi apki...:)...Umda...bahut umda
जवाब देंहटाएंरमिया की व्यथा को आपने सटीक शब्दों में रूपांतरित कर दिया है।
जवाब देंहटाएंbahut sunder ....
जवाब देंहटाएंmera bhi bachpan chay baganon mein bita hai ....
sunder chitran kiya hai bagan jan jivan ka ...
सामयिक और सार्थक पोस्ट, आभार.
हटाएंमेरे ब्लॉग meri kavitayen पर आपका हार्दिक स्वागत है, कृपया पधारें.
बहुत बढिया ...मन के अंदर तक पहुच गई रचना
जवाब देंहटाएंजितना कहा जाय कम है
शायद वह मंगलवार अगले मंगल को भी न आए। पर रमिया के घर में रमिया वापस लौट चुकी है, और रमिया जब वहां है तो वह घर घर है, न सिर्फ़ रमिया का मेरा भी, हमारा भी।
जवाब देंहटाएंदीपिका जी लाजवाब। कुछ है जो आपको ब्लॉगजगत के आम कवियों से अलग करता है।
रमिया के माध्यम से अशक्त, असहाय लोगों पर लिखी यह कविता काफी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है । ये करूणा के स्वर नहीं है । ऐसी निरीह, विवश, और अवश अवस्था में भी उनके संघर्षरत छवि को आपने सामने रखा है । यह प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज है।
शुक्रिया मनोज जी। विपरीत परिस्थितियों में भी हौसला न छोड़ना ही तो जीवन है..
हटाएंआपकी रचना ने आपको फोलो करने पर विवश कर दिया.. बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं--सुनहरी यादें--
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दीपिका जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
.....रचना का हर शब्द झकझोड़ रहा है
जरूरी कार्यो के ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ
यह रमिया आपको हर गाँव में शहर में मिल जायगी बहुत ही अच्छी रचना बधाई
जवाब देंहटाएंaapki ramiya apni si lagi....man ko chhu gai aapki kavita aur ramiya....shandaar prastuti...badhai
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद यदि कवि होते तो शायद इसी तरह की जीवंत कविताएं रचते..
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद तो एक संस्थान बन चुके हैं.. वैसी सामाजिक संवेदनशीलता अब कहां... कविता आपको पसंद आई, इसके लिए धन्यवाद गौतम जी..
हटाएंएक और पैबंद की मांग करने लगी है
जवाब देंहटाएंउसकी सात पैबंदों वाली साड़ी
अब तो सुई-धागे ने भी विद्रोह कर दिया है।
रचना पढ़ते वक़्त रमिया चलचित्र की भांति घुमती सी प्रतीत होती है .
सुन्दर लेखन
खटे सदा रमिया मगर, मिया बजाएं ढाप ।
जवाब देंहटाएंतन मन को देती जला, रहा दूसरा ताप ।
रहा दूसरा ताप, हाथ पे हाथ धरे है ।
जीवन का अभिशाप, मगर ना आह करे है ।
रमिया दारु लाय, पिलाती नाग नाथ को ।
साड़ी अगली बार, मीसती चली हाथ को ।।
वाह! इस काव्यात्मक टिप्पणी के लिए धन्यवाद
हटाएंfollowar ke liye option band hai?
हटाएंयह गूगल का ही कोई कारनामा है.. ब्लॉग में मार्च से अचानक फॉलोवर गैजेट दिखना बंद हो गया। कुछ पता चलते ही बताती हूं। यदि आपमें से किसी को इस बारे में कोई जानकारी हो, तो कृपया बताएं।
हटाएंफिलहाल आप फीडरीडर का उपयोग कर सकते हैं।
हटाएंन जाने कितने मंगलवार निकाल जाएंगे और रमिया के सपने बस सपने ही रह जाएंगे ... फिर भी उसका हौसला टूटा नहीं है ... ज़िंदगी से जद्दोजहद करती रमिया का सशक्त चित्रण किया है ...
जवाब देंहटाएंआपके शब्दों में एकदम ज़मीनी खुशबू है,
जवाब देंहटाएंसुन्दर, और संजीदा भी!
सादर
इतिहास और वर्तमान को समेटे आपकी यह पोस्ट निश्चित रूप से प्रभावशाली है ...!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.....बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंकमाल की अभिव्यक्ति .........
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली ..
प्रभावशाली रचना....
जवाब देंहटाएंबधाई !
अगले मंगलवार जरूर खरीदेगी रमिया
जवाब देंहटाएंछपे फूलों वाली साड़ी और कान के बुंदे।
rachana ki shandaar samapti .
बहुत सुंदर प्रस्तुति***
जवाब देंहटाएंहफ्ते भर रमिया की उंगलियों और
जवाब देंहटाएंचाय की पत्तियों की जुगलबंदी
आज उसके आंचल में कुछ सितारे भरेगी।
क्या अंदाज़ है आपके बात कहने का ! शब्द चित्र बन गए हों जैसे । विशेषणों और बिम्बों ने इन चित्रों में क्या खूब रंग भर दिए हैं । कमाल की अभिव्यक्ति -क्षमता। बिम्बों में, संकेतों में बातें कहना, बहुत खूब ! अवचेतन में बसे चाय के बागान उतर आए हैं आपकी कविता में। एक प्रभावशाली रचना के लिए बधाई।
bahut bhawpoorn kavita likha hai.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...पहली बार आपके ब्लॉग पर आया.. बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंaabhar
क्या सच को उकेरा है इस कविता के जरिये..
जवाब देंहटाएंदूसरों की ख़ुशी की खातिर अपने आज का स्वाहा करती एक और महिला का जानदार वर्णन!
कविता के माध्यम से यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें...
पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
जवाब देंहटाएंइस मार्मिक लेकिन कटु यथार्त को व्यक्त करती इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
नीरज
प्रभावशाली रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंबस यूहीं ज़िन्दगी तमाम होती जाती है ...सपने की किरमिच आँखों में किरकिराती रहती है....और सपने हैं की उगते रहते हैं ...बहुत मर्मस्पर्शी रचना ..
जवाब देंहटाएंसच... दिलको छू गयी !
अपना और अपना जीवन , जो बेवस है , लाचार है ! उनकी सुध किसको है ! सुन्दर अनुभूति !
जवाब देंहटाएंरमिया का आत्मविश्वास ही उसका दर्द है जहाँ घर में एकमात्र कमाउ सदस्य स्त्री है
जवाब देंहटाएंमजदूरों की कई बस्तियों में अपने पति के नशे का जुगाड़ करती रमिया अपना बदन नहीं ढंक पा रही
बधाई ऐसी सशक्त रचना के लिए
हफ्ते भर रमिया की उंगलियों और
जवाब देंहटाएंचाय की पत्तियों की जुगलबंदी
Sundar!
मार्मिक प्रभावशाली रचना
जवाब देंहटाएं