लोगों के लिए अजूबा हैं
खुद से प्यार करती औरतें।
औरत भी पैदा होती है उसी तरह
जिस तरह आता है हर कोई इस दुनिया में।
मगर धीरे-धीरे...
साल-दर-साल...
वह बनती रहती है औरत
जिसकी देह संवारती है कुदरत
और हम मांजते हैं मन को
बड़ी मेहनत से
संस्कारों से सजा-संवार कर।
अधिकार शब्द के कोई मायने नहीं उसके लिए
वह रोज़ रटती है कर्तव्य का पाठ।
उसके भीतर समुन्दर है
मगर वह बैठी है साहिलों पर
किसी लहर के इंतज़ार में।
वह सबके करीब है, बस खुद से अलहदा।
एहतियात के बावजूद
उग ही आती हैं कुछ आवारा लताएं
जो लिपटती नहीं पेड़ों से
फैल जाती हैं धरती पर बेतरतीब।
अपने आप पनप जाती हैं कुछ औरतें
जो प्रेम करती हैं खुद से,
किसी को चाहने से पहले।
वह दिल के टूटने पर टूटती है
बिखरती नहीं।
चांद तारों की ख्वाहिश नहीं उसे
वह चलना चाहती है धरती पर पैर जमाकर।
पहली बारिश में नहाती है,
दिल खोलकर लगाती है ठहाके।
खुद से प्यार करती औरत,
बार-बार नहीं देखती आईना।
छुप-छुप कर हंसती है अच्छी औरत
कनखियों से देखती है उसकी छोटी स्कर्ट।
कभी उससे डरती, कभी रश्क करती
उसके संस्कारों पर तरस खाती हुई
घर ले आती है एक नई फेयरनेस क्रीम।
शाम छह बजे धो लेती है मुंह
संवार लेती है बाल,
ठीक कर लेती है साड़ी की सलवटें।
ठहरी हुई झीलों के बीच
झरने की तरह बहती हैं
खुद से प्यार करती औरतें।
औरों के लिए फ़ना होती औरत
प्रेम के मायने नहीं जानती।
प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें
इस दुनिया का वजूद रहेगा।
बेहद ज़रूरी है खुद को चाहना..........
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता !!
अनु
संवेदित करने वाली कविता।
जवाब देंहटाएंयह कविता उद्वेलित करती है मन को. देखता हूँ अपने आस-पास, अपने घर-आँगन में और आज इस रचना को पढकर मन में एक अपराधबोध सा अनुभव हो रहा है!
जवाब देंहटाएंएक साथ याद आई फ़िल्म "रात और दिन"
(कनखियों से देखती है उसकी छोटी स्कर्ट।
कभी उससे डरती, कभी रश्क करती)
और मेरे प्रिय लेखक पाओलो कोएल्हो की पुस्तक "इलेवेन मिनट्स"
(प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें)
आपकी कविताएँ हर बार चौंकाती हैं, साधारण से लगने वाले शब्दों और चरित्रों के माध्यम से बहुत कुछ सम्वेदनशील कह जाती हैं!!
मेरी शुभकामनाएँ और शुभाशीष!!
औरत की सही परिभाषा
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावों को व्यक्त करती प्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है --
भीतर ही भीतर -------
ठहरी हुई झीलों के बीच
जवाब देंहटाएंझरने की तरह बहती हैं
खुद से प्यार करती औरतें...Beautiful
बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंदीपिकाजी , यह कविता भी हमेशा की तरह एक विशिष्ट कविता है । इन पंक्तियों में मुझे अर्थबाधा आ रही है । सायद मैं समझ नही पारही हूँ कि औरों के लिये फना होती औरत प्रेम के मायने नही जानती । इसके लिये बनना होगा उसे प्रेम ..कैसे ।
जवाब देंहटाएंअन्तिम पंक्तियाँ कविता का सार हैं कि जब तक औरतें खुद से प्रेम करेंगी दुनिया का वजूद रहेगा ..।
संवेदनशील रचना ... खुस से प्रेम जरूरी है और ख़ास कर आज की औरतों को नहीं तो समाज उन्हें जीने नहीं देगा ...
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव हैं ॥
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.in/2014/10/2014-8.html
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना .... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है
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