जुलाई 03, 2022

नदी


मचलती है नदी

छुई मुई सी, सकुचाई सी

दुनिया के रंगों से भरमाई सी

छुओ तो चिहुंकती है

बेबात खिलखिलाती है

नया ख्वाब आंखों में लिए

अजनबी शहर से गांठ जोड़ती

जड़ों को सींचती, दुलराती।

अनजान रवायतों से

सिहरती है नदी।

 

संवरती है नदी।

चांद को देखकर निखरती

तारों की छांव में बहती नदी,

खुद से बतिया लेती है।

जब उठती हैं दिल में हिलोरें

तो लाड़ से किनारों को चूम लेती है।

भले खामोश हो शहर

उफनती है नदी।

 

सुलगती है नदी,

सवाल पूछती है

जवाब मांगती है

रूठती है, झगड़ती है।

बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।

छीन लाती है आसमान से रंग

इसकी लहरों में आग भी है।

कभी जंगल में

पलाश सी

दहकती है नदी।

 

ठहरती है नदी।

कभी निढाल होकर

पत्थरों पर बिखरती है।

बहती हुई,

मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।

खुद उठती है, संभलती है।

ठिठकती है, मगर रुकती नहीं

हर रोज़ मेरे भीतर से

गुज़रती है नदी...

अप्रैल 21, 2021

मत लिखो - चार्ल्स बुकोवस्की

 

 चार्ल्स बुकोवस्की ने लिखने का इरादा रखने वाले लोगों के लिए कुछ कहा था, जो मेरे ख्याल से लिखने के इच्छुक हर नवोदित लेखक को पढ़ना चाहिए। उनका कहना है कि लिखना साप्रयास नहीं होना चाहिए, जब वह आपके लिए इतना सहज हो, जितना कि जीना, तभी आप असली लेखक हैं। इसका अंग्रेज़ी से अनुवाद मैंने किया है। मूल कविता हिंदी अनुवाद के नीचे पढ़ सकते हैं

 


 आप लेखक बनना चाहते हैं?

 

मत लिखो

अगर वह अंदर से किसी झरने की तरह न फूटे,

हर चीज़ के बावजूद,

मत लिखो।

 

जब तक कि तुम्हारे दिलोदिमाग से,

तुम्हारी ज़बान से, तुम्हारी रूह से,

वह बेसाख्ता न निकले।

मत लिखो।

 

घंटों कंप्यूटर के परदे को ताकते,

या अपने टाइपराइटर पर झुके,

शब्द ढूंढने पड़े,

तो मत लिखो।

 

मत लिखो, नाम या दाम कमाने के लिए,

किसी को आगोश में लाने के लिए,

बैठे हुए बार-बार लिखना-मिटाना पड़े,

तो मत लिखो।

 

अगर लिखने की सोचकर भी थक जाओ तो मत लिखो।

किसी और की तरह चाहते हो लिखना,

तो भूल जाओ।

अगर इंतज़ार करना पड़े उसके गरज कर बरसने का,

तो इंतज़ार करो।

अगर फिर भी न बरसे, तो कुछ और करो।

 

अगर पहले तुम्हें चाहिए,

बीवी या माशूक या मां-बाप या किसी भी और की मुहर,

तो तुम तैयार नहीं हो।

 

भेड़चाल में मत पड़ो,

उन हज़ारों लोगों की तरह जो खुद को लेखक कहते हैं

ऊबाऊ और दिखावटी मत बनो।

न रहो आत्ममुग्ध।

दुनिया भर के किताबघर तुम्हारे जैसों पर ऊब कर सो चुके हैं,

उनकी ऊब मत बढ़ाओ।

 

मत लिखो,

जब तक कि तुम्हारी आत्मा से वह रॉकेट की तरह न निकले।

जब तक कि शांत रहना तुम्हें पागल न कर दे।

तुम्हें खुदकुशी या कत्ल की हद तक न ले जाए

मत लिखो।

जब तक कि तुम्हारे अंदर का सूरज तुम्हारी आंतें न जला दे,

मत लिखो।

 

जब समय आएगा और तुम इसी के लिए बने हो,

तो कलम खुद-ब-खुद चलेगी और चलती रहेगी।

जब तक कि तुम न मर जाओ,

या तुम्हारे अंदर की आग न मर जाए।

 

कोई दूसरा रास्ता नहीं है, न कभी था!

 

-    चार्ल्स बुकोवस्की, अनुवाद: दीपिका रानी

 

 

So You Want to be a Writer?

 

if it doesn't come bursting out of you

in spite of everything,

don't do it.

unless it comes unasked out of your

heart and your mind and your mouth

and your gut,

don't do it.

if you have to sit for hours

staring at your computer screen

or hunched over your

typewriter

searching for words,

don't do it.

if you're doing it for money or

fame,

don't do it.

if you're doing it because you want

women in your bed,

don't do it.

if you have to sit there and

rewrite it again and again,

don't do it.

if it's hard work just thinking about doing it,

don't do it.

if you're trying to write like somebody

else,

forget about it.

 

if you have to wait for it to roar out of

you,

then wait patiently.

if it never does roar out of you,

do something else.

 

if you first have to read it to your wife

or your girlfriend or your boyfriend

or your parents or to anybody at all,

you're not ready.

 

don't be like so many writers,

don't be like so many thousands of

people who call themselves writers,

don't be dull and boring and

pretentious, don't be consumed with self-

love.

the libraries of the world have

yawned themselves to

sleep

over your kind.

don't add to that.

don't do it.

unless it comes out of

your soul like a rocket,

unless being still would

drive you to madness or

suicide or murder,

don't do it.

unless the sun inside you is

burning your gut,

don't do it.

 

when it is truly time,

and if you have been chosen,

it will do it by

itself and it will keep on doing it

until you die or it dies in you.

 

there is no other way.

and there never was.

 

- Charles Bukowski

मई 20, 2020

मयकशी की बात रहने दीजिए


मयकशी की बात रहने दीजिए
हमें तो अरसा हुआ तौबा किए

होश में वो आएं जो मदहोश हों
तोहमतें मत अब लगाया कीजिए

चांद की तन्हाई उसको ही पता
साथ उसके रतजगे जिसने किए

फिक्र जिनको है फ़क़त रुसवाई की
ज़िक्र अब उनका भला क्या कीजिए

जिस्म तो बस धड़कनों का खेल है
यहां हम हैं रूह का सौदा किए

कौन सी उल्फ़त कहां की कुरबतें
बज़्म में उनकी खड़े हैं लब सिए

हसरतें ले जाओ, रहने दो मगर
मुख़्तसर से ख्वाब जो हमने जिए


मई 13, 2020

हक़


हटा दिए हैं मैंने खिड़कियों से
गहरे रंग के पर्दे
बेरोकटोक आता है अब
मुस्कुराता हुआ सूरज
शरमाता हुआ चांद।
मुझे मंज़ूर नहीं हवाओं का तुमसे गुजरकर पहुंचना मुझ तक
मंज़ूर नहीं कि कोई तय करे मेरे हिस्से की धूप
मेरे आंगन की बारिशें
मेरी चाय की शक्कर
मेरी लिपस्टिक का कलर

नहीं देना है मुझे अब
मुस्कुराने और गुनगुनाने का हिसाब
उदासियों और खामोशियों का जवाब
ज़िन्दगी और मेरे दरमियां
अब कोई बिचौलिया न हो...

अगस्त 30, 2018

सीली सीली हवा हुई




जाने कैसी ख़ता हुई
जिसकी हमको सज़ा हुई।

ज़ुर्म ज़रा जो पूछा तो
दुनिया हमसे ख़फा हुई।

हमने कब खुशियां मांगी
दर्द हमारी दवा हुई।

उन्हें मिली उजली रातें
हमें शबे-ग़म अता हुई।

जान गई दीवानों की
माशूकों की अदा हुई।

फूलों की आंखें रोईं
सीली सीली हवा हुई।

बंदों की फिर क्या हस्ती
जब उस रब की रज़ा हुई।

जनवरी 29, 2017

ग़ज़ल



काफी समय से ख़ामोश ब्लॉग पर एक नई शुरुआत कुछ तुकबंदियों के साथ...

याद चंचल हो गई
रात बेकल हो गई

इश्क का चर्चा चला
हवा संदल हो गई

ज़िक्र जब तेरा हुआ
आंख बादल हो गई

चाप सुनकर बेसबर
देख सांकल हो गई

ख्वाब की तन्हाई में
आज हलचल हो गई

एक ठिठकी सी ग़ज़ल
अब मुकम्मल हो गई


फ़रवरी 19, 2015

कांच की गोलियां



कई बार सोचा निकाल फेंकूं
बदन पर जोंक की तरह लगी
कुछ लाल, पीली, गुलाबी कांच की गोलियां
उन्हें खींचने के चक्कर में लहूलुहान हो जाती हूं खुद ही
कभी ख्याल आता है, काश कोई तूफान
झाड़-पोंछ ले जाए दिमाग से पुरानी इबारतें
और एक नई स्लेट बना दे मुझे

...
शाम के धुंधलके में मेरे आगे फैलती है एक हथेली
जानी-पहचानी, भरोसेमंद हथेली
उस पर फैली ढेर सारी कांच की गोलियां
मेरी आंखों में अचानक उग आते हैं जुगनू
नन्हीं उंगलियां आगे बढ़ती हैं
मेरी नजरें एकटक जमी हैं उस कांच की गोली पर
हलकी सिंदूरी गोली
जैसे अलसुबह झील में उतरता है सूरज।

उसे पाने के लिए मगर जरूरी है एक खेल
(यह बताया गया है मुझे)
कि भले ही मुझे अजीब लगे
मगर इसे खेलने से मिलती हैं टॉफियां, खिलौने
और मेरी पसंदीदा कांच की गोलियां

जानी पहचानी हथेली अचानक अजनबी हो जाती है
किसी किताब में देखी भेड़िए की आंखें याद आ गई है मुझे
डर कर आंखें बंद कर ली हैं मैंने
कसी हुई मुट्ठी में पसीज रही है सिंदूरी गोली।

फिर आसमानी
फिर हरी, फिर सिलेटी, फिर गुलाबी
एक-एक कर जमा होती कांच की गोलियों से
भर रहा है मेरा खजाना
मगर कुछ खाली हो रहा है भीतर
गले में अटक गया है दर्द का एक गोला
न बाहर आता है
न भीतर जाता है
कोहरे ने ढक लिया है मेरा वजूद
हर खटके पर बढ़ जाती हैं धड़कनें
हर दिन, हर पल
जंजीरों में कैद है मेरी रूह

एक दिन उस गोले को निगलकर
धड़कनों पर काबू करके
चमकती नारंगी गोली से नजरें हटाकर
मैं फेंक आती हूं सारी कांच की गोलियां उस हथेली पर।
डर ने अचानक पाला बदल लिया है
अंधेरे में भी साफ साफ दिखता है, स्याह पड़ता चेहरा  
दोनों हथेलियां सिमट रही हैं पीछे की ओर
कदम वापस मुड़ रहे हैं
और मैं सांस ले पा रही हूं।