ग़ज़ल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

अगस्त 30, 2018

सीली सीली हवा हुई




जाने कैसी ख़ता हुई
जिसकी हमको सज़ा हुई।

ज़ुर्म ज़रा जो पूछा तो
दुनिया हमसे ख़फा हुई।

हमने कब खुशियां मांगी
दर्द हमारी दवा हुई।

उन्हें मिली उजली रातें
हमें शबे-ग़म अता हुई।

जान गई दीवानों की
माशूकों की अदा हुई।

फूलों की आंखें रोईं
सीली सीली हवा हुई।

बंदों की फिर क्या हस्ती
जब उस रब की रज़ा हुई।

जनवरी 29, 2017

ग़ज़ल



काफी समय से ख़ामोश ब्लॉग पर एक नई शुरुआत कुछ तुकबंदियों के साथ...

याद चंचल हो गई
रात बेकल हो गई

इश्क का चर्चा चला
हवा संदल हो गई

ज़िक्र जब तेरा हुआ
आंख बादल हो गई

चाप सुनकर बेसबर
देख सांकल हो गई

ख्वाब की तन्हाई में
आज हलचल हो गई

एक ठिठकी सी ग़ज़ल
अब मुकम्मल हो गई


जून 27, 2014

हिज्र का मौसम बुरा था



चांद खिड़की पर खड़ा था
मगर अंधेरा बड़ा था

चांदनी थी कसमसाती
रात का पहरा कड़ा था

उन चरागों को कहें क्या
ज़ोर जिनका इक ज़रा था

जब सुलगती थी हवा भी
हिज्र का मौसम बुरा था

पुराना इक ख़त गुलाबी
मेज़ पर औंधा पड़ा था

टीस रह रह कर उठी थी
जख्म अब तक भी हरा था

नींद पलकों से उड़ी थी
रंग ख्वाबों का उड़ा था

इस अंधेरी रात से पर
भोर का सपना जुड़ा था