अप्रैल 13, 2013

तुम



धुल जाता है जब
बारिशों में वक्त का आईना
तेरी यादों की धूप
छन छन कर आती है
और उगता है
ख्वाहिशों का इंद्रधनुष
दिल के आसमान में।

आरज़ुओं की किताब में
तेरे ज़िक्र के बगैर
कोई सफ़हा खत्म नहीं होता।
ज़रा ज़रा से ख्वाब
तेरी उंगली पकड़ कर
दौड़ना चाहते हैं।

जब गर्म रेत पर
नंगे पांव चलते
जिंदगी के पांवों में
फफोले उठते हैं
तेरी मुस्कुराहट
ठंडी लहर सी
मरहम लगा जाती है।

बादल के सीने में
जब गुबार भरता है
बूंदों की अय्याशी से
पानी पानी हो उठता है
शर्मिंदा आसमान
हवाओं के ज़ुल्म से बेबस
मासूम खिड़कियां
जब छोड़ देती हैं आस
तेरा भरोसा चिटकनियों सा
तभी रोक लेता है तूफान।

इस भागते शहर में
बहुत मुमकिन है
ग़ाफ़िल हो जाना
फिर भी यह एहतियात रखा है मैंने
कि तेरी याद
अब आंचल की गांठ में बंधी है....

अप्रैल 07, 2013

कैनवस

फिर से एक पुरानी कविता.....
दुनिया के हर रंग से बेखबर
एक कोने में चुपचाप खड़ा था
वह खाली कैनवस।

कुछ दूर टंगे थे
कुछ चंपई चेहरे
कुछ भूरी आंखें
रोज़ कुछ लकीरें उभरतीं
रोज कुछ रंग बिखरते
और तैयार होती एक मुकम्मल तस्वीर।
हसरत से देखता रहता
वह खाली कैनवस।

एक दिन खिड़कियां खुलीं
और अंदर घुस आया
धूप का एक शरारती टुकड़ा..
शबे-फ़ुरकत गुज़र चुकी थी।
आंखें मिचमिचाकर खुली ही थीं कि
जादुई उंगलियों ने प्यार से छुआ
खाली कैनवस को।

कुछ नक्‍श कुनमुनाए,
कुछ रंग चहके।
कलाकार ने पहना दिया उसे सुर्ख जोड़ा
और उसके बेवा सपने सुहागन हो गए।
अब तस्वीर बन चुका था
वह खाली कैनवस।

अब वह बेचारा नहीं, बेरंग नहीं
मगर फख्र से
अपने सीने पर बिखरे रंग
दुनिया को दिखाता कैनवस
अपनी पहचान खो चुका है।
लोग अब उसे तस्वीर कहते हैं।
क्या किसी ने देखा है,
तस्वीर के पीछे?
रंगों और लकीरों की जिम्मेदारी ढोता कैनवस
आज भी कहीं अकेला है।