बुधिया को पसंद नहीं
अंधेरी रातें
जब घुप्प अंधेरे में
डर कर जगी मुनिया
देख नहीं पाती
मां की दुलार भरी आंखें
सांवले माथे पर
बड़ी सी लाल बिंदी
तो रो-रोकर
उठा लेती है
आसमान सिर पर
और बुधिया की नींद से बोझल आंखें
कातर हो उठती हैं
पारसाल तीज पर खरीदी
कांच की चूड़ियां भी
बस दो ही रह गई हैं।
चूड़ियों की खनक के बगैर
खुरदरी हथेलियों की थपकियां
मुनिया को दिलासा नहीं देतीं
काजल लगी बड़ी बड़ी आंखें
जब अंधेरे से टकरा कर लौट जाती हैं
मां के सीने से लगकर भी सोती नहीं
अंधेरी रातों में
कितना रोती है मुनिया
परेशान बुधिया
अपनी झोंपड़ी में
रात भर जलाती है ढिबरी
हवाओं से आग का नाता
उसकी पलकें नहीं झपकने देता
रात भर जलती ढिबरी
कटौती कर जाती है
बुधिया के राशन में
तभी उसे अच्छी लगती हैं
चांदनी रातें
जब चांद की रोशनी
उसकी थाली की रोटियों में
ग्रहण नहीं लगाती
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।...इस एक पंक्ति में जन्नत है
जवाब देंहटाएंइस कविता में मुंशी प्रेमचन्द का स्त्री रूप आपके रूप में प्रकट हो गया है |बिलकुल साफ -सुथरी अभिव्यक्ति |आभार
जवाब देंहटाएंउन्नत किस्म की कबिताई....खासकर 'पारसाल' शब्द काफ़ी समय बाद सुना !
जवाब देंहटाएं...संवेदना को झकझोरती रचना !
बहुत सुन्दर दीपिका जी...
जवाब देंहटाएंइतना उत्कृष्ट लेखन पढ़ने के बाद खुद भी ऐसा ही कुछ लिखने की ललक जाग जाती है...
अनु
महबूब का चेहरा या
जवाब देंहटाएंबच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
बेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ..आभार
बहुत खुबसूरत प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबधाइयां -
कुछ पंक्तियाँ
सादर
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
.......... उत्कृष्ट रचना !!!
उत्कृष्ट भाव लिये लाजबाब प्रस्तुति,,,,
जवाब देंहटाएंमहबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।,,,सशक्त पंक्तियाँ,,,
RECENT P0ST फिर मिलने का
तभी उसे अच्छी लगती हैं
जवाब देंहटाएंचांदनी रातें
जब चांद की रोशनी
उसकी थाली की रोटियों में
ग्रहण नहीं लगाती
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
ढिबरी गाँव में गरीब के घर को उजाला से भर देती है यहाँ ढिबरी ने हमारे मन को भी उजाले से भर दिया बहुत सुन्दर प्रतिक ....
जो रात पार लगा दे जीवन की, वही चाँद है।
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंइस कविता के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।
ढिबरी...अपना सा शब्द...बहुत प्यारी रचना!!
जवाब देंहटाएंचाँद ढिबरी होता है और चाँद घडी भी होता है ।अद्भुत दीपिका जी । क्या तुम्हें याद है कविता भी पढी । कोई जबाब नही कोई शब्द नही । केवल --वाह...।
जवाब देंहटाएंकाश ये चाँद हमेशा खिला रहता!
जवाब देंहटाएंvery appealing creation .
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत उत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंअभाव को जीते लोग अपने लिए जीने और ख़ुशियों का बहाना ढूंढ़ ही लेते हैं।
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।
dhibari ko komal bhav se bhavana dekar bhav ko jagaya aapne,sunder.
जवाब देंहटाएंसुकोमल कथ्य के साथ प्रतीकों का सुंदर समन्वय।
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंचाँदनी रात का बुधिया के लिए कितना महत्त्व है ...उसके राशन में कटौती नहीं होती .... रात भर जागना नहीं पड़ता आग के डर से ... बहुत गहन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंइस कविता में बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता(आधुनिकता ) और प्रगतिशीलता की नकल और चकाचौंध की चांदनी में किस तरह अभावग्रस्त निर्धनों की ज़िन्दगी प्रभावित हो रही है, उसे कवयित्री ने दक्षता के साथ रेखांकित किया है।
जवाब देंहटाएंपरेशान बुधिया
अपनी झोंपड़ी में
रात भर जलाती है ढिबरी
हवाओं से आग का नाता
उसकी पलकें नहीं झपकने देता
रात भर जलती ढिबरी
कटौती कर जाती है
बुधिया के राशन में
बुधिया का संसार अभावग्रस्त हिन्दुस्तान का संसार है .
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
जब चांद की रोशनी
उसकी थाली की रोटियों में
ग्रहण नहीं लगाती
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
यही है सरकारी योजनाओं -नरेगा /करेगा /मरेगा की असली तस्वीर .नाम बड़े और दर्शन छोटे .
पारसाल तीज पर खरीदी
कांच की चूड़ियां भी
बस दो ही रह गई हैं।
चूड़ियों की खनक के बगैर
खुरदरी हथेलियों की थपकियां
मुनिया को दिलासा नहीं देतीं
यही है खुले बाज़ार और "वाल मार्ट " का हासिल मनोज भाई .
मनोज जी आपके आभारी हैं इतनी सशक्त दास्ताँ हिन्दुस्तान की आपने यथार्थ वादी कविता में सुनवाई .यहाँ रूपक असली है .कलागत चमत्कार नहीं .
न जाने किस तरह तो रात भर छप्पड़ बनातें हैं ,
जवाब देंहटाएंसवेरे ही सवेरे आंधियां ,फिर लौट आतीं हैं .
यही है बुधिया का असल भारत .बहुत सशक्त रचना है "चाँद और ढिबरी ",बचपन की ढिबरी और लालटेन याद आगई .वो चूने का कच्चा पक्का मकान ,वो पिताजी का झौला ,सुरमे मंजन का ,वो छज्जू पंसारी से रोज़ चार आने का कोटोज़म खरीदना ,लिफ़ाफ़े रद्दी में बेचके आना ,माँ के कहे उसी दूकान पे ,दोस्तों से आँख बचाते ,सब कुछ तो याद आगया ये कविता पढके .
पांचवीं से बारवीं कक्षा तक का दौर (१९५६-१९६३ )याद आगया .
वही है हिन्दुस्तान आज भी .फिर भी रोज़ होता है यहाँ भारत बंद .
बेहद उम्दा रचना वाह क्या बात है
जवाब देंहटाएंमन की गहराइयों में उतर गई आपकी पोस्ट ,बधाई सार्थक लेखन के लिए,
जवाब देंहटाएंबुधिया का चांद तो एक ढिबरी है...वाकई !
जवाब देंहटाएंBEHTREEN ABHIVYKTI...
जवाब देंहटाएंवाह|||
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना..
:-)
भाव, भाषा एवं अभिव्यक्ति सराहनीय है। मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंमहबूब का चेहरा या
जवाब देंहटाएंबच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
गहन उत्कृष्ट और सुंदर भाव ...विस्तृत सोच लिए हुए ...बहुत सुंदर रचना ...बहुत ही सुंदर ...
विजय दशमी की शुभ कामनाएं ...
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंबहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये. मधुर भाव लिये भावुक करती रचना,,,,,,
जवाब देंहटाएंItifakn apka blog padha....sabhi rachnayen bhut khoobsoorti se poornta se man ke bhav vyakt karti hain
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जवाब देंहटाएंगरीबी से बहुत सी दुकानें चलती हैं. उनमें तथ तथाकथित
जवाब देंहटाएंप्रगतिशील साहित्य, विशेषकर कविता भी है. यदि गरीबी, भुखमरी, अत्याचार, आदि ना हों, तो प्रतीकात्मक रूप से भूखा मर जाएगा कवि! लिखेगा क्या? तब तो प्रेम, सौंदर्य एवं प्रकृति की कविता लिखना ही एक सहारा बचेगा.
मात्र गरीब ही नहीं बिकता. गरीबी भी बिकती है. उसका एक मोल होता है. पर उसे बेंचने और खरीदने वाले गरीब नहीं होते. वे समर्थ भी होते हैं और समझदार भी. उन्हें पता होता है कि किसे कैसे बेंचा जाना है और कि क्या खरीदा जाना है.गरीब बस टुकुर-टुकुर यह खेल देखता है!
गरीबी से बहुत सी दुकानें चलती हैं. उनमें तथ तथाकथित
जवाब देंहटाएंप्रगतिशील साहित्य, विशेषकर कविता भी है. यदि गरीबी, भुखमरी, अत्याचार, आदि ना हों, तो प्रतीकात्मक रूप से भूखा मर जाएगा कवि! लिखेगा क्या? तब तो प्रेम, सौंदर्य एवं प्रकृति की कविता लिखना ही एक सहारा बचेगा.
मात्र गरीब ही नहीं बिकता. गरीबी भी बिकती है. उसका एक मोल होता है. पर उसे बेंचने और खरीदने वाले गरीब नहीं होते. वे समर्थ भी होते हैं और समझदार भी. उन्हें पता होता है कि किसे कैसे बेंचा जाना है और कि क्या खरीदा जाना है.गरीब बस टुकुर-टुकुर यह खेल देखता है!