अप्रैल 09, 2014

क्या अब भी लिखी जाती है प्रेम कविता?



आजकल जब भी नज़र आती है कोई प्रेम कविता
उसे बड़े चाव से ऐसे पढ़ती हूं
मानो वह प्रेम का आखिरी गीत हो।

क्या अब भी लिखी जाती है प्रेम कविता?

आजकल किराने की दुकान की पर्ची में
एक-एक सामान के दाम को मिलाती हूं
संभाल कर रखी पिछली पर्चियों से
और गुणाभाग करती हूं
उस बचत के पैसों से
जिसमें सेंध मार दी है
महीने के राशन ने।
हर बार फल खरीदते वक्त सोचती हूं
क्या वाकई जरूरी है सेहत के लिए फल खाना?
और सबसे सस्ते फल लेकर
पुचकार लेती हूं दिल और दिमाग दोनों को।
दाल-चावल के साथ सब्जी थोड़ी कम भी तो खाई जा सकती है!
शाम तक जमा-खर्च की एक सीडी चलती रहती है दिमाग में
क्या आजकल राशन, फल खरीदने वाले भी लिखते हैं प्रेम कविता?

घड़ी की सुइयों के साथ नाचती सुबह
देखने नहीं देती बच्ची के चेहरे की अकुलाहट
दो नन्हें पांव भी बिना थके साथ-साथ भागते रहते हैं
गले लगने की उम्मीद में।
बिस्कुट पकड़ने को भी कहां बढ़ते हैं
कस कर चुन्नी पकड़े हाथ
बाथरूम में गिरते पानी के शोर में
कहां सुनाई देती है
बंद दरवाजे पर नन्हें हाथों की थपकियां?
टाटा करते मायूस हाथों की ओर पीठ करके
बस की ओर दौड़ते लोग भी क्या लिखते हैं प्रेम कविता?

अखबारों में भी कहां हैं अच्छी खबरें
चांटों, घूंसों में, गालियों में, तालियों में
सिमट रही है राजनीति
ज्यादा से ज्यादा गिरने की होड़
ज्यादा से ज्यादा लूटने की होड़
नक्सलियों, आतंकियों से भिड़कर जान देने वाले
थोड़ी सी और ज़िन्दगी मांग रहे हैं
अपने बच्चों के लिए
उन्हें पता है, हथेली पर टिकी जान के बदले
दो वक्त जलता चूल्हा
और कितने दिन जल पाएगा
सरकार की भीख से!
रोडरेज, हत्या, बलात्कार की खबरों से भरा
अखबार पढ़ने वाले लोग भी क्या लिखते हैं प्रेम कविता?

तभी आजकल जब नज़र आती है कोई प्रेम कविता
तो मैं पढ़ती हूं उसे हर्फ़-हर्फ़
क्या मालूम यह आखिरी प्रेम कविता ही हो....

17 टिप्‍पणियां:

  1. विगत कुछ सालों से असहिष्णुता बढ़ी है। घृणा, हिंसा, प्रतिकार का पलड़ा प्रेम से भारी है पर इतना भी तय है कि जब तक ये दुनिया है प्रेम है और रहेगा।

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  2. भूल गए राग रंग भूल गए जकडी
    हाथ रही तीन चीज नौन तेल लकडी ।
    जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में ही जीवन से जूझते लोगों को प्रेम कविता नही सूझती । लेकिन प्रेम कविता न सही , पर यह भी सच है कि सच्ची कविता तो जूझते हुए लोग ही लिख सकते हैं ।

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  3. वाह वाह क्या बात है - खूब लिखा है|

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  4. पता नहीं आप जिसे प्रेम कविता कह रही हैं, क्या वो सचमुच प्रेम कविता है भी? एक माँ रोज़ अपने थके हारे बेटे से पूछती थी कि उसे खाने में क्या चाहिये. इसके बाद सारे व्यंजनों के नाम गिनाकर, दाल रोटी परोस देती थी. किसी ने पूछा कि वो जब दाल-रोटी ही बनाती है तो फिर इतने व्यंजनों के नाम क्यों गिनाती है. उसका जवाब था - ताकि कम से कम उनके नाम तो याद रहें.
    प्रेम की कविताएँ भी शायद इसीलिये लिखी जा रही हैं. क्योंकि के बदलते स्वरूप में "वह प्रेम" भी शायद बदल गया है, लुप्त हो गया है... आखिरी प्रेम कविता तो कब की लिखी जा चुकी है. यह तो सिर्फ मर्सिया है उसके नाम जिसे प्रेम कहते थे!!
    और हाँ, इसे कमेण्टदारी निभाना मत समझियेगा, क्योंकि हम तब भी अपनी बात कहते थे, जब आप नहीं पढती थीं मुझे! :) :) :)

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    1. :):) कमेंटदारी वाला वह कमेंट आपके लिए नहीं था सलिल जी, यह बात आप भी जानते हैं.. और मैं मौका लगते ही आपको पढ़ती हूं। बीच में काफी अंतराल हो गया, जिस दौरान मैंने लिखना भी बंद कर दिया था क्योंकि मेरी सबसे प्रिय कविता (मेरी सवा साल की बिटिया) मेरा सारा समय मांगती थी... अंत में यह कि यह इस पोस्ट पर सबसे सटीक कमेंट था।

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  5. प्रेम की कल्पना / विश्वास बना रहे , इसलिए इस दौर में और भी जरुरी है प्रेम कविता लिखना , पढ़ना भी। … मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ जिंदगी इन दिनों http://teremeregeet.blogspot.in/2014/02/blog-post_4.html

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  6. सटीक रचना. आजकल प्रेम कविता लिखना सच में मुश्किल है

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  7. आखिरी प्रेम कविता तो तभी लिखी गई होगी, जब आखिरी बार प्रेम हुआ होगा...क्या ये संभव है कि प्रेम आखिरी बार दुनिया में कर लिया गया हो..नहीं ..वैसे आजकल सही में प्रेम कविता कि जगह एसिड प्रकरण ही दिखता है...पर उम्मीद पर दुनिया कायम है...कहीं न कहीं प्रेम कविता लिखी जाती ही होगी इस दुनिया में

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  8. गहरी अभिव्यक्ति ... जब आसान न हो जीवन तो प्रेम को लिखना आसान नहीं होता ... मारा जाता है मन ..

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  9. जीवन का दूसरा नाम ही तो प्रेम है
    और इससे भिन्न भी और कोई प्रेम गीत है क्या :) ??

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  10. प्रेम सर्वत्र है दृश्य अदृश्य दोनों रूपों में
    ..बहुत सुन्दर

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  11. प्रेम ही सर्वत्र मौजूद है बस उसकी मौजूदगी अलग अलग रूपों में दिखाई देती है, बहुत ही सुंदर रचना.

    रामराम

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  12. नक्सलियों, आतंकियों से भिड़कर जान देने वाले
    थोड़ी सी और ज़िन्दगी मांग रहे हैं
    अपने बच्चों के लिए
    उन्हें पता है, हथेली पर टिकी जान के बदले
    दो वक्त जलता चूल्हा
    और कितने दिन जल पाएगा
    सरकार की भीख से!

    बहुत खूब!

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