जनवरी 27, 2012

कैनवास


दुनिया के हर रंग से बेखबर
एक कोने में चुपचाप खड़ा था
वह खाली कैनवास।

कुछ दूर टंगे थे
कुछ चंपई चेहरे
कुछ भूरी आंखें
रोज़ कुछ लकीरें उभरतीं
रोज कुछ रंग बिखरते
और तैयार होती एक मुकम्मल तस्वीर।
हसरत से देखता रहता
वह खाली कैनवास।

एक दिन खिड़कियां खुलीं
और अंदर घुस आया
धूप का एक शरारती टुकड़ा..
शबे-फ़ुरकत गुज़र चुकी थी।
आंखें मिचमिचाकर खुली ही थीं कि
जादुई उंगलियों ने प्यार से छुआ
खाली कैनवास को।

कुछ नक्‍श कुनमुनाए,
कुछ रंग चहके।
कलाकार ने पहना दिया उसे सुर्ख जोड़ा
और उसके बेवा सपने सुहागन हो गए।
अब तस्वीर बन चुका था
वह खाली कैनवास।

अब वह बेचारा नहीं, बेरंग नहीं
मगर फख्र से
अपने सीने पर बिखरे रंग
दुनिया को दिखाता कैनवास
अपनी पहचान खो चुका है।
लोग अब उसे तस्वीर कहते हैं।
क्या किसी ने देखा है,
तस्वीर के पीछे?
रंगों और लकीरों की जिम्मेदारी ढोता कैनवास
आज भी कहीं अकेला है।

जनवरी 14, 2012

बंद कमरे का पुराना सामान..




कभी फुर्सत में बैठो
तो खोलना बरसों से बंद पड़ा वह कमरा
जहां यूं ही बेतरतीब बिखरा हैं
कुछ पुराना सामान।

किसी आले पर पड़ा होगा
एक पुराना अल्बम
मन करे तो देखना
कि मेरी उजली हंसी में घुलकर
तुम्हारी सुरमई शाम
कैसे गुलाबी हो जाती थी।
कि पस-ए-मंज़र में वो आसमानी रंग
मेरी उमंगों का था।
एक ही फ्रेम में कैद होंगी
तुम्हारी खामोशियां, मेरी गुस्ताखियां
और क्लोज-अप में होंगे हमारे साझे सपने।
कैद होंगे कहीं सावन के किस्से
जब बारिशों के बाद की धूप में
तुमने समझाया था मुझे
इंद्रधनुष का मतलब।

अलगनी पर टंगा होगा एक पुराना कोट
जिसकी आस्तीन से चिपके होंगे कुछ ख्वाब
और एक जेब में पड़े होंगे कुछ खुदरा लम्हे
देखना क्या उनकी खनक आज भी वैसी ही है।
एक जेब में शायद पड़ी मिले
मेरी हथेलियों की गरमाहट
जो चुराई थी मैंने तुम्हारे ही हाथों से
और एक मासूम से जुर्म की सजा में
उम्र कैद पाई थी।

पन्‍ना दर पन्‍ना खोलना
माज़ी की हसीन किताब
कि सलवटों में पड़े सूखे फूलों में
महक अभी बाकी होगी।
हवाओं ने जिसे इधर धकेला था,
वह आवारा बादल का टुकड़ा
लौट कर नहीं गया।
जब नए मौसम की सर्द हवा
खुश्क कर दे तुम्हारे ज़ज्बात
चुपके से खोलना यह बंद कमरा
कि पिछले मौसमों से बचा-बचा कर
थोड़े एहसास रखे हैं तुम्हारे लिए।

अलमारी के निचले खाने में
होगा एक पीला दुपट्टा।
जब सुनाई दे तुम्हें,
वसंत के जाते हुए कदमों की उदास आहट
आहिस्ते से खोलना वह दुपट्टा
कि उसकी हर तह में
जाने कितने वसंत कैद हैं।
रफ्ता रफ्ता खुलती हर तह के साथ
तुम देखोगे सुर्ख गुलमोहर में लिपटे
सकुचाए वसंत के लौटते निशां
जैसे गौने में
किसी नवेली के महावर लगे पांव
करते हैं गृहप्रवेश।

यहां से पिछली दीवाली
मैंने बुहार दिया था दर्द का हर तिनका।
उतार दिए थे सब जाले।
और यूं ही पड़ा रहने दिया था
सारा साजो-सामान।
तन्हा नहीं होने देगा तुम्हें
मेरे जाने के बाद,
बंद कमरे का यह पुराना सामान....

जनवरी 09, 2012

सिपाही की बेटी का ख़त


पापा, जो गुड़िया आप
लाए थे पिछली बार
वो आज भी मैंने
रखी है बड़े जतन से
उसका ख्याल रखा मन से
पर वो बहुत पुरानी हो गई है
शन्‍नो की गुड़िया बिल्कुल नई है
मेरी गुड़िया के सुनहरे बाल
अब बन गए हैं जाले
ठुकरा गए हैं उसको
गुड्डे के घर वाले
उसकी सगाई जब टूटी
मैं फूट फूट कर रोई
रानो का गुड्डा तो
बड़ा ही सजीला है
टोपी ऐनक में
साहब सा लगता है
कब नई गुड़िया लाओगे
पापा तुम कब आओगे?

पप्पू की शरारतों से
हर कोई परेशान है
इतना भी वह छोटा नहीं
बस दिखने में नादान है
मां कुछ नहीं कहती है
बस खोई-खोई रहती है
जो शिकायत करो तो
उनकी आंख भर आती हैं
फिर भीगी पलकों से
जाने कैसे मुस्काती हैं
उन गीली आंखों से
बड़ा डर लगता है।
जाने क्यों उनमें
आपका चेहरा दिखता है।

मेरी शिकायतों का
उनसे जिक्र न करना
पापा, आप घर की
बिल्कुल फिक्र न करना।
आपकी गुड़िया बड़ी हो गई है
तीसरी कक्षा में अव्वल रही है
मां का, पप्पू का ख्याल रखूंगी।
मैं सब संभाल लूंगी।
आप अपना ध्यान रखना
रोज़ एक ख़त लिखना
वरना डांट बहुत खाओगे
मगर..पापा तुम कब आओगे?

जनवरी 06, 2012

और एक ख़त..


गीली रेत पर उभरे हैं लफ्ज
तो लहरों के आने से पहले
सोचा लिख डालूं
एक ख़त
तुम्हारे नाम।
उन्हीं झरनों
उन्हीं पहाड़ों
उन्हीं खेतों के पते पर
फिर भेजूं कोई पैगाम।

मन करता है,
सर्दियों की किसी
अलसाई सी दुपहरी में।
पत्तो से छनकर
आंगन में बिखरती धूप में।
तुम्हारे आंचल का कोना,
आंखों पर रखकर
फिर से सो जाऊं।
और अंदर तक उतरे
फिर उसी धूप की गरमी
कि ठंडा पड़ा हर कोना गरमा जाए

उस आंगन से
इस आंगन तक
एक उम्र का फासला है
पर तुम ही बताओ
कि क्या बदला है?
यहां भी खिलती है
जूही की बेल
अक्सर मिल जाते हैं
कुछ टुकड़े धूप के
झरोखों से छन छन कर
आती है जिंदगी।
शहर की भीड़ में भी
सूना सा कोई गांव पलता है।
जुगनुओं की तरह
अंधेरे में कोई
ख्वाब जलता है।

जमीं और आसमां वही है।
पर कुछ है, जो नहीं है।
हर दुपहर जो बस्ता
मेरे कंधों से
उतारा करती थीं तुम,
उन कंधों पर
आज भी एक बस्ता है।
पर उसमें जो किताब है
वो बहुत भारी है।
किसी दिन साफ दिखते
तो कभी धुंधलाते हैं हर्फ।
हर वक्‍त होते हैं
सर पर इम्तिहान।
हर वक्‍त
कोई सवाल
अनसुलझा होता है।
जिंदगी की पाठशाला में
कोई अवकाश नहीं होता...

जनवरी 02, 2012

कोई नया ख़त

पुराने ख़तों की गर्द जब उड़ती है
आंखों में कोई याद सी चुभती है
बड़े दिन हुए, न आया डाकिया
क्या भूल गया है तू घर का पता
नए संदेशे आएंगे तो जरूर
नए मौसम की खबर कोई तो भेजेगा।

बंद लिफाफे में,
खुशियों की आहट होगी।
कोरे पन्ने पर,
शोख मुस्कराहट होगी।
जो भीनी खुश्बू में भीगा होगा।
वो ख़त जरूर मेरा होगा।
तेरी खुशियों के झोले में
डाकिया देख मेरा कोई ख़त तो नहीं!