लोगों के लिए अजूबा हैं
खुद से प्यार करती औरतें।
औरत भी पैदा होती है उसी तरह
जिस तरह आता है हर कोई इस दुनिया में।
मगर धीरे-धीरे...
साल-दर-साल...
वह बनती रहती है औरत
जिसकी देह संवारती है कुदरत
और हम मांजते हैं मन को
बड़ी मेहनत से
संस्कारों से सजा-संवार कर।
अधिकार शब्द के कोई मायने नहीं उसके लिए
वह रोज़ रटती है कर्तव्य का पाठ।
उसके भीतर समुन्दर है
मगर वह बैठी है साहिलों पर
किसी लहर के इंतज़ार में।
वह सबके करीब है, बस खुद से अलहदा।
एहतियात के बावजूद
उग ही आती हैं कुछ आवारा लताएं
जो लिपटती नहीं पेड़ों से
फैल जाती हैं धरती पर बेतरतीब।
अपने आप पनप जाती हैं कुछ औरतें
जो प्रेम करती हैं खुद से,
किसी को चाहने से पहले।
वह दिल के टूटने पर टूटती है
बिखरती नहीं।
चांद तारों की ख्वाहिश नहीं उसे
वह चलना चाहती है धरती पर पैर जमाकर।
पहली बारिश में नहाती है,
दिल खोलकर लगाती है ठहाके।
खुद से प्यार करती औरत,
बार-बार नहीं देखती आईना।
छुप-छुप कर हंसती है अच्छी औरत
कनखियों से देखती है उसकी छोटी स्कर्ट।
कभी उससे डरती, कभी रश्क करती
उसके संस्कारों पर तरस खाती हुई
घर ले आती है एक नई फेयरनेस क्रीम।
शाम छह बजे धो लेती है मुंह
संवार लेती है बाल,
ठीक कर लेती है साड़ी की सलवटें।
ठहरी हुई झीलों के बीच
झरने की तरह बहती हैं
खुद से प्यार करती औरतें।
औरों के लिए फ़ना होती औरत
प्रेम के मायने नहीं जानती।
प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें
इस दुनिया का वजूद रहेगा।