दिसंबर 30, 2011

गज़ल


तेज भंवरों से उबरने का नहीं सबको हुनर।
डूबने का डर किसे, जब साथ हो अपने समन्दर।

लब खुलें तो एक हलचल सी ज़माने में मचे,
ला जुबां में आज तू ऐसी खनक, इतना असर।

जख्म गिनकर मंजिलों की राह मत दुश्‍वार कर,
देख सागर तक नदी किस तरह तय करती सफर।

वो हैं नादां जो शबे गम से तड़प कर रो दिए,
हम चले हैं संग में अपने लिए अपना सहर।

क्यों शिकायत हो हमें इन शोख लहरों से भला,
साहिलों पर रेत का जब खुद बनाया था नगर।

दिसंबर 27, 2011

समय और हम..



समय की सिलवटों में
मेरे प्यार
की सीवन नहीं उधड़ी है
समय-समय पर
मिल कर हम ने
उसकी सिलाई पक्‍की की है।

फर्क बस इतना है कि
उसे जताने
या दिखाने की
छत की मुंडेर से चिल्‍लाने की
अब जरूरत नहीं।

न दरकार है,
पुरानी यादों की,
या पूरे-अधूरे वादों की,
अब दिखता नहीं
सिर्फ महसूस होता है
सतह पर जमा प्यार
अब गहरे पैठ गया है!

दिसंबर 21, 2011

क्या तुम्हें याद है?

बहुत दिनों से कुछ नया नहीं लिख पाई। तो फिलहाल एक निरंतरता बनाए रखने के लिए अपने ब्लॉग की पहली पोस्ट रीपोस्ट कर रही हूं जो मेरे दिल के बेहद करीब है.... 

क्या तुम्हें याद है?
 ...


क्या तुम्हें याद है? 
जब बागानों में 
हौले से उतरती शाम, 
तुम्हें कुछ लम्हों की सलाई दे जाती थी
सपने बुनने के लिए।
नज़रों से गुम होते लाल गोले के साथ
जब आसमान पर सियाही फैलती थी
तो उतरते थे जमीन पर 
कुछ अनछुए ख्वाब
और पैरों के नीचे 
पत्तों की चरमराहट भी
चौंका जाती थी।

बांस के झुरमुट के पीछे वो पहाड़ी झरना 
क्या आज भी बहता है?
जिसकी कल-कल 
तुम्हारी खिलखिलाहट को
कुछ यूं समा लेती थी 
कि दोनों को अलग करना 
एक पहेली होता था। 
उसके किनारे बैठ तुम देर तक
मुझे सोचा करती थी।

तुम्हें याद हैं?
वो साफ पानी में अपना अक्स देखना? 
वो बनती-बिगड़ती शक्लें। 
यहां तो टूटी सड़क पर जमे 
बारिश के मटमैले पानी में 
कुछ भी साफ नहीं दिखता। 

वो हवा जो तुम्हें सहलाकर 
सिहरा जाती थी।
वो चांदनी जो तुम्हें 
बाहों में समेटती थी,
तो डाह होती थी, 
चांद की किस्मत से।
वो उजास चांदनी की थी
या तुम्हारे मन की?

छत पर देखना
चांद और बादलों की लुकाछिपी, 
वो उंगलियों से तारे गिनना। 
तुम्हें याद है? 
तुम्हारी आंखों की कूची 
कैसे सपनों में रंग भरा करती थी। 
यहां तो तितलियों के पंख भी बेरंग हो गए हैं!

चाय की पत्तियां तोड़ती मां की पीठ पर बंधा 
वो नन्‍हा बच्चा 
जो तुम्हें देखकर मुस्कुराता था। 
लालबत्ती पर रुकी गाड़ी के शीशे थपथपाते 
इस बच्चे की आंखें उससे बहुत अलग हैं। 

जब कभी रात अकेली होती है, 
तुम बहुत याद आती हो। 
पर हमारे बीच बरसों का फासला है।
हम उतने ही अलग हैं, 
जितना तुम्हारे पहाड़ी झरने से 
मेरी सूखती हुई नदी।
हम रेल की पटरियां तो नहीं 
लेकिन जमीन और आसमान हो सकते हैं। 
कहीं दूर, 
सपनों के क्षितिज में, 
मिल तो सकते हैं!