तेज भंवरों से उबरने का नहीं सबको हुनर।
डूबने का डर किसे, जब साथ हो अपने समन्दर।
लब खुलें तो एक हलचल सी ज़माने में मचे,
ला जुबां में आज तू ऐसी खनक, इतना असर।
जख्म गिनकर मंजिलों की राह मत दुश्वार कर,
देख सागर तक नदी किस तरह तय करती सफर।
वो हैं नादां जो शबे गम से तड़प कर रो दिए,
हम चले हैं संग में अपने लिए अपना सहर।
क्यों शिकायत हो हमें इन शोख लहरों से भला,
साहिलों पर रेत का जब खुद बनाया था नगर।