बहुत दिनों से कुछ नया नहीं लिख पाई। तो फिलहाल एक निरंतरता बनाए रखने के लिए अपने ब्लॉग की पहली पोस्ट रीपोस्ट कर रही हूं जो मेरे दिल के बेहद करीब है....
क्या तुम्हें याद है?
जब
बागानों में
हौले से उतरती शाम,
तुम्हें कुछ लम्हों की सलाई दे जाती थी
सपने बुनने के लिए।
नज़रों से गुम होते लाल गोले के साथ
जब आसमान पर सियाही फैलती थी
तो उतरते थे जमीन पर
कुछ अनछुए ख्वाब
और पैरों के नीचे
पत्तों की चरमराहट भी
चौंका जाती थी।
बांस के झुरमुट के पीछे वो पहाड़ी झरना
क्या आज भी बहता है?
जिसकी कल-कल
तुम्हारी खिलखिलाहट को
कुछ यूं समा लेती थी
कि दोनों को अलग करना
एक पहेली होता था।
उसके किनारे बैठ तुम देर तक
मुझे सोचा करती थी।
तुम्हें याद हैं?
वो साफ पानी में अपना अक्स देखना?
वो बनती-बिगड़ती शक्लें।
यहां तो टूटी सड़क पर जमे
बारिश के मटमैले पानी में
कुछ भी साफ नहीं दिखता।
वो हवा जो तुम्हें सहलाकर
सिहरा जाती थी।
वो चांदनी जो तुम्हें
बाहों में समेटती थी,
तो डाह होती थी,
चांद की किस्मत से।
वो उजास चांदनी की थी
या तुम्हारे मन की?
छत पर देखना
चांद और बादलों की लुकाछिपी,
वो उंगलियों से तारे गिनना।
तुम्हें याद है?
तुम्हारी आंखों की कूची
कैसे सपनों में रंग भरा करती थी।
यहां तो तितलियों के पंख भी बेरंग हो गए हैं!
चाय की पत्तियां तोड़ती मां की पीठ पर बंधा
वो नन्हा बच्चा
जो तुम्हें देखकर मुस्कुराता था।
लालबत्ती पर रुकी गाड़ी के शीशे थपथपाते
इस बच्चे की आंखें उससे बहुत अलग हैं।
जब कभी रात अकेली होती है,
तुम बहुत याद आती हो।
पर हमारे बीच बरसों का फासला है।
हम उतने ही अलग हैं,
जितना तुम्हारे पहाड़ी झरने से
मेरी सूखती हुई नदी।
हम रेल की पटरियां तो नहीं
लेकिन जमीन और आसमान हो सकते हैं।
कहीं दूर,
सपनों के क्षितिज में,
मिल तो सकते हैं!
क्या तुम्हें याद है?
हौले से उतरती शाम,
तुम्हें कुछ लम्हों की सलाई दे जाती थी
सपने बुनने के लिए।
नज़रों से गुम होते लाल गोले के साथ
जब आसमान पर सियाही फैलती थी
तो उतरते थे जमीन पर
कुछ अनछुए ख्वाब
और पैरों के नीचे
पत्तों की चरमराहट भी
चौंका जाती थी।
बांस के झुरमुट के पीछे वो पहाड़ी झरना
क्या आज भी बहता है?
जिसकी कल-कल
तुम्हारी खिलखिलाहट को
कुछ यूं समा लेती थी
कि दोनों को अलग करना
एक पहेली होता था।
उसके किनारे बैठ तुम देर तक
मुझे सोचा करती थी।
तुम्हें याद हैं?
वो साफ पानी में अपना अक्स देखना?
वो बनती-बिगड़ती शक्लें।
यहां तो टूटी सड़क पर जमे
बारिश के मटमैले पानी में
कुछ भी साफ नहीं दिखता।
वो हवा जो तुम्हें सहलाकर
सिहरा जाती थी।
वो चांदनी जो तुम्हें
बाहों में समेटती थी,
तो डाह होती थी,
चांद की किस्मत से।
वो उजास चांदनी की थी
या तुम्हारे मन की?
छत पर देखना
चांद और बादलों की लुकाछिपी,
वो उंगलियों से तारे गिनना।
तुम्हें याद है?
तुम्हारी आंखों की कूची
कैसे सपनों में रंग भरा करती थी।
यहां तो तितलियों के पंख भी बेरंग हो गए हैं!
चाय की पत्तियां तोड़ती मां की पीठ पर बंधा
वो नन्हा बच्चा
जो तुम्हें देखकर मुस्कुराता था।
लालबत्ती पर रुकी गाड़ी के शीशे थपथपाते
इस बच्चे की आंखें उससे बहुत अलग हैं।
जब कभी रात अकेली होती है,
तुम बहुत याद आती हो।
पर हमारे बीच बरसों का फासला है।
हम उतने ही अलग हैं,
जितना तुम्हारे पहाड़ी झरने से
मेरी सूखती हुई नदी।
हम रेल की पटरियां तो नहीं
लेकिन जमीन और आसमान हो सकते हैं।
कहीं दूर,
सपनों के क्षितिज में,
मिल तो सकते हैं!
वाह...वाह...वाह...बेजोड़ रचना...शब्द नहीं हैं मेरे पास प्रशंशा के लिए...
जवाब देंहटाएंनीरज
धन्यवाद नीरज जी
जवाब देंहटाएंयह कविता इस ब्लॉग में अब तक प्रकाशित रचनाओं में सबसे अच्छी लगी।...आपका ब्लॉगजगत में स्वागत है।
जवाब देंहटाएंहिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.
जवाब देंहटाएंbahut hi behtreen rachna hai ,bdhai sweekaren...
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