अगस्त 29, 2012

क्या तुम्हें याद है?

क्या तुम्हें याद है? 

जब बागानों में 
हौले से उतरती शाम, 
तुम्हें कुछ लम्हों की सलाई दे जाती थी
सपने बुनने के लिए।
नज़रों से गुम होते लाल गोले के साथ
जब आसमान पर सियाही फैलती थी
तो उतरते थे जमीन पर 
कुछ अनछुए ख्वाब
और पैरों के नीचे 
पत्तों की चरमराहट भी
चौंका जाती थी।

बांस के झुरमुट के पीछे वो पहाड़ी झरना 
क्या आज भी बहता है?
जिसकी कल-कल 
तुम्हारी खिलखिलाहट को
कुछ यूं समा लेती थी 
कि दोनों को अलग करना 
एक पहेली होता था। 
उसके किनारे बैठ तुम देर तक
मुझे सोचा करती थी।

तुम्हें याद हैं?
वो साफ पानी में अपना अक्स देखना? 
वो बनती-बिगड़ती शक्लें। 
यहां तो टूटी सड़क पर जमे 
बारिश के मटमैले पानी में 
कुछ भी साफ नहीं दिखता। 

वो हवा जो तुम्हें सहलाकर 
सिहरा जाती थी।
वो चांदनी जो तुम्हें 
बाहों में समेटती थी,
तो डाह होती थी, 
चांद की किस्मत से।
वो उजास चांदनी की थी
या तुम्हारे मन की?

छत पर देखना
चांद और बादलों की लुकाछिपी, 
वो उंगलियों से तारे गिनना। 
तुम्हें याद है? 
तुम्हारी आंखों की कूची 
कैसे सपनों में रंग भरा करती थी। 
यहां तो तितलियों के पंख भी बेरंग हो गए हैं!

चाय की पत्तियां तोड़ती मां की पीठ पर बंधा 
वो नन्‍हा बच्चा 
जो तुम्हें देखकर मुस्कुराता था। 
लालबत्ती पर गाड़ी के शीशे थपथपाती 
औरत की गोद में बच्चे की आंखें उससे बहुत अलग हैं। 

जब कभी रात अकेली होती है, 
तुम बहुत याद आती हो। 
पर हमारे बीच बरसों का फासला है।
हम उतने ही अलग हैं, 
जितना तुम्हारे पहाड़ी झरने से 
मेरी सूखती हुई नदी।

भले हम जमीन और आसमान हों

क्या कभी कहीं दूर सपनों के क्षितिज में

हम मिल सकते हैं?

जुलाई 21, 2012

मुखौटा



राह चलते लोग
अक्सर खो देते हैं
अपनी आंखों की रोशनी
नज़रों के आगे होती है
उनकी मंज़िल
और मंज़िल की साधना में
वे अर्जुन होते हैं।
उन्हें दिखती है
चिड़िया की बाईं आंख
और बाकी चीज़ें धुंधली हो जाती हैं।

राह चलते लोग
मोह-माया से निर्लिप्त होते हैं
उन्हें नज़र नहीं आते
लड़कियों के फटते कपड़े
उन्हें नहीं दिखते
मचलते मसलते हाथ
दीन दुनिया से बेखबर होते हैं
राह चलते लोग।

एसी कमरों में
टीवी देखते लोगों की
असंख्य आंखें होती हैं
उनका मन कराहता है
सड़कों पर उतरती इज्ज़त से।
उनके हाथों में
सुबह का अखबार,
चाय की प्याली होती है
और दिल में सुलगती हुई आह
कब बदलेगा हमारा देश!”
कब होगी नारियों की इज्ज़त!”

एसी कमरों में
टीवी देखते लोग
दुनिया की परवाह करते हैं।
वे उफनते हैं
देश के बिगड़ते हालात पर।
दुर्योधनों की दरिंदगी पर
उनका खून खौलता है।

टीवी देखते लोग
कभी सड़कों पर नहीं उतरते
सड़कों पर चलते है
बस अर्जुन के मुखौटे
अर्जुन को दिखती है
चिड़िया की बाईं आंख
और चीरहरण के समय
वे अंधे हो जाते हैं।


जुलाई 03, 2012

शोर



हल्के सिंदूरी आसमान में
उनींदा सा सूरज
जब पहली अंगड़ाई लेता है,
मेरी खिड़की के छज्जे पर
मैना का एक जोड़ा
अपने तीखे प्रेमालाप से
मेरे सपनों को झिंझोड़ डालता है।
गुस्से से भुनभुनाते होंठ
आंखें खुलते ही न जाने क्यों 
टू फॉर ज्वॉय बोल जाते हैं।

मंद हवाओं की ताल पर
झरने का बेलौस संगीत
भोर का एकांत बिखेर देता है।
बर्फीले पानी में
नंगे बच्चों की छपाक-छई से
पसीज गए हैं मेरी आंखों में
कुछ ठिठुरे हुए लम्हे।
छलकते पानी के साथ
हवाओं में बिखर गई है
कुछ मासूम खिलखिलाहटें।
मन करता है
अंजुरी अंजुरी उलीच लाउं
फिर उसी झरने से
कुछ खोई हुई खिलखिलाहटें।

चाय की फैक्ट्री में ठीक आठ बजे उठता अलार्म
कच्चे घरों में हलचल मचा देता है।
चाय में रात की रोटी भिगोती अधीर उंगलियां
एक और लंबे दिन के लिए तैयार हैं।
वफादारी दिखाने को व्यग्र कुत्ता
चरमराते पत्तों की आवाज़ पर भी भौंकता है
नए नए पैरों से लड़खड़ाते हुए दौड़ता बछड़ा
रंभाती मां की आवाज़ सुन
चुपचाप उसके जीभ तले गर्दन रख देता है।
बिन बुलाए मेहमान सा
कभी भी बरस पड़ता
मेघ का टुकड़ा
टीन के छप्पर पर कितना शोर मचाता है।
आज भी कानों में
इस कदर गूंजता है वह शोर
कि भीड़ भरे शहर का सन्नाटा
अब चिढ़ाता है मुझे।

मई 24, 2012

कवि और कमली


 
तुम श्रृंगार के कवि हो
मुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो।
अखबार के चटपटे पन्‍नों पर
कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।

तुम श्रृंगार के कवि हो
भूख पर, देश पर लिखना
तुम्हारा काम नहीं।
क्रांति की आवाज उठाने का
ठेका नहीं लिया तुमने।
तुम प्रेम कविता ही लिखो
मगर इस बार कल्पना की जगह
हकीकत में रंग भरो।
वहीं पड़ोस की झुग्गी में
कहीं कमली रहती है।
ध्यान से देखो
तुम्हारी नायिका से
उसकी शक्ल मिलती है।

अभी कदम ही रखा है उसने
सोलहवें साल में।
बड़ी बड़ी आंखों में
छोटे छोटे सपने हैं,
जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
तुमने नहीं देखा होगा।
रूखे काले बालों में
ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
अपनी कविता में
उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!

चुपके से कश भर लेती है
बाप की अधजली बीड़ी का
आग को आग से बुझाने की कोशिश
नाकाम रहती है।
उसकी झुग्गी में
जब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।

तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
मगर बंगलों के आदमखोर रईस
उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
उसकी झुग्गी के आगे
उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
वे उसे छूना चाहते हैं
भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्‍त।
सिगरेट की तरह उसे पी कर
उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।

उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
उन्हें परहेज नहीं,
उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!

मई 12, 2012

औरत जब बनती है मां

मां तो हमेशा मां होती है, फिर उसके लिए मदर्ड डे के नाम पर एक दिन क्यों? इससे बेहतर कि हम उसे वह सम्मान दें जिसकी वह असली हकदार है। आज अपनी एक साल पुरानी एक कविता यहां शेयर कर रही हूं.......
 
चाहे न हो उसे,
पोथियों का ज्ञान।
उठने-बैठने,
बोलने, हंसने के सलीके
से हो अनजान।
पर सीख लेती है,
क्षण भर में एक जुबां
औरत जब बनती है मां।

उसका हंसना-रोना,
सब पहचानती है।
वह मां है,
हर बात जानती है।
उसकी एक आवाज पर भागती है,
मां उसकी आंखों से,
सोती है, जागती है।

जिन डगमग पांवों को,
वह चलना सिखाती है।
जब वे दौड़ जाते हैं,
वह पीछे रह जाती है।
उसे नहीं आती अंग्रेजी,
उनके दोस्तों में मिक्स-अप होना।
वह नहीं जानती,
कि एंबेरेसिंग होता है,
सब के सामने हंसना-रोना।

जब होते हैं बाल सफेद,
ज़िंदगी की धूप में।
आधुनिकता की डाई से
बच्चे रंगना चाहते हैं,
उसे नए रूप में।
जिनकी मूक भाषा भी,
कभी झट से समझती है।
आज उनकी बोली
अजनबी सी लगती हैं

अब अपनी परवाह
खुद कर सकते हैं बच्चे
ज़िंदगी से जूझ सकते,
लड़ सकते हैं बच्चे।
अंधेरे कमरे में
अपनी चारपाई पर पड़ी है
मां जो फिर से औरत बन गई है।

अप्रैल 27, 2012

पति से बिछुड़ी औरत



पति से बिछुड़ी औरत
एक रद्दी किताब है
जो पढ़ी जा चुकी है
एक-एक पन्‍ना
और फेंक दी गई है दुछत्ती पर
धुंधला गए हैं उसके अक्षर
ज़िल्द के चिथड़े हो गए हैं।

पति से बिछुड़ी औरत
एक घायल सिपाही है।
उसके हथियार छीन लिए गए हैं
सिंदूर चूड़ियां बिछुवे,
इनके बगैर वह लड़ नहीं सकती।

उसे दिखाया नहीं गया
कोई और रस्ता।
उसके घर में
बाहर की ओर खुलने वाला दरवाजा
बंद हो गया है।
ढक दी गई है रोशनदान-खिड़कियां
परंपरा के मोटे परदों से।

पति से बिछुड़ी औरत
एक ज़िंदा सती है।
उसके सपनों का दाह-संस्‍कार नहीं हुआ
अपने अरमानों की राख
किसी गंगा में प्रवाहित नहीं की उसने
अब उसे कामनाओं की अग्नि-परीक्षा में
तप कर कुंदन बनना है।

पति से बिछुड़ी औरत
निगाहें नीची करके चलती है।
अपने कलंक से झुक गई है उसकी गर्दन
उसके खाते में पुण्य का बैलेंस इतना नहीं था
कि पति उसके माथे पर सिंदूर
और मुंह में आग रख सके।
अब उसे प्रायश्चित करना है उम्र भर।

पत्‍नी से बिछुड़ा आदमी
किसी बेस्ट सेलर का सेकेंड एडिशन है
नई जिल्द, नए कलेवर के साथ।
लोग देखते हैं उसे दिलचस्पी से
किसी खाली अलमारी में
उसे सजाने के ख्वाब देखते हैं।

पत्नी से बिछुड़ा आदमी
कर्मयोगी है,
वह संसार से भाग नहीं सकता
उसे जीवन पथ पर आगे बढ़ना है
नई उम्मीदों, नए हौसलों के साथ।
मृत्यु तो एक शाश्‍वत सत्य है
और... परिवर्तन प्रकृति का नियम।

अप्रैल 18, 2012

नदी..



मेरे भीतर मचलती है नदी
छुई मुई सी, सकुचाई सी
दुनिया के रंगों से भरमाई सी
छुओ तो चिहुंकती है
बेबात खिलखिलाती है
हर वक्‍त नया ख्वाब आंखों में लिए
अजनबी शहर से गांठ जोड़ती
जड़ों को सींचती, दुलराती।
अनजानी रवायतों से
सिहरती है नदी।

मेरे भीतर संवरती है नदी।
निखरती है चांद को देखकर
तारों की छांव में बहती नदी,
खुद से भी बतिया लेती है।
दिल में हिलोरें उठें,
तो चूम लेती है किनारों को
भले खामोश हो शहर
उफनती है नदी।

मेरे भीतर सुलगती है नदी,
सवाल पूछती है
जवाब मांगती है
रूठती है, झगड़ती है।
बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।
छीन लाती है आसमान से उसका रंग
इसकी लहरों में आग भी है।
कभी जंगल में
पलाश सी दहकती है नदी।

मेरे भीतर ठहरती है नदी।
कभी निढाल होकर
पत्थरों पर बिखरती है।
हरदम बहती हुई,
मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
वह नदी है, खुद संभलती है।
ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
हर रोज़ मेरे भीतर से
गुज़रती है नदी...