चांद खिड़की पर खड़ा था
मगर अंधेरा बड़ा था
चांदनी थी कसमसाती
रात का पहरा कड़ा था
उन चरागों को कहें क्या
ज़ोर जिनका इक ज़रा था
जब सुलगती थी हवा भी
हिज्र का मौसम बुरा था
पुराना इक ख़त गुलाबी
मेज़ पर औंधा पड़ा था
टीस रह रह कर उठी थी
जख्म अब तक भी हरा था
नींद पलकों से उड़ी थी
रंग ख्वाबों का उड़ा था
इस अंधेरी रात से पर
भोर का सपना जुड़ा था