अप्रैल 18, 2012

नदी..



मेरे भीतर मचलती है नदी
छुई मुई सी, सकुचाई सी
दुनिया के रंगों से भरमाई सी
छुओ तो चिहुंकती है
बेबात खिलखिलाती है
हर वक्‍त नया ख्वाब आंखों में लिए
अजनबी शहर से गांठ जोड़ती
जड़ों को सींचती, दुलराती।
अनजानी रवायतों से
सिहरती है नदी।

मेरे भीतर संवरती है नदी।
निखरती है चांद को देखकर
तारों की छांव में बहती नदी,
खुद से भी बतिया लेती है।
दिल में हिलोरें उठें,
तो चूम लेती है किनारों को
भले खामोश हो शहर
उफनती है नदी।

मेरे भीतर सुलगती है नदी,
सवाल पूछती है
जवाब मांगती है
रूठती है, झगड़ती है।
बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।
छीन लाती है आसमान से उसका रंग
इसकी लहरों में आग भी है।
कभी जंगल में
पलाश सी दहकती है नदी।

मेरे भीतर ठहरती है नदी।
कभी निढाल होकर
पत्थरों पर बिखरती है।
हरदम बहती हुई,
मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
वह नदी है, खुद संभलती है।
ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
हर रोज़ मेरे भीतर से
गुज़रती है नदी...

36 टिप्‍पणियां:

  1. मन के सारे आयाम लिख डाले ... सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  2. मेरे भीतर सुलगती है नदी,
    सवाल पूछती है
    जवाब मांगती है
    रूठती है, झगड़ती है।
    बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।

    बहुत ही सुन्दर लगी पोस्ट।

    जवाब देंहटाएं
  3. दीपिका जी आपकी कविताओं में भावों का उद्गार ,झरनों की कलकल ,पर्वतों का सौन्दर्य ,प्रकृति की मनोहारी छटा सबकुछ अनायास मिल जाता है |बधाई

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरे भीतर ठहरती है नदी।
    कभी निढाल होकर
    पत्थरों पर बिखरती है।
    बेहतरीन भावों का संयोजन ...

    जवाब देंहटाएं
  5. छुओ तो चिहुंकती है
    बेबात खिलखिलाती है
    हर वक्‍त नया ख्वाब आंखों में लिए
    अजनबी शहर से गांठ जोड़ती
    जड़ों को सींचती, दुलराती।
    अनजानी रवायतों से
    सिहरती है नदी।
    इस नदी को बांधना नहीं है, यूँ हीं गुजरने देना है -

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर दीपिका..............
    आपका ज्ञान आपकी रचनाओं में झलकता है.....
    (और टिप्पणियों में भी :-) )

    खूबसूरत रचना के लिए बधाई.
    सस्नेह
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  7. हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...
    अनुभूति की नदी है शायद ..
    बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
  8. वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना के लिए बधाई ,...दीपिका जी,....

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...

    जवाब देंहटाएं
  9. अपना मन नदी समान है..
    बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति इस महसुसियात की...

    जवाब देंहटाएं
  10. वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    Bahut Khoob....

    जवाब देंहटाएं
  11. नदी और नारी दोनों के जीवन- खंडों की कथा में बहुत समानतायें हैं -एक के माध्यम से दूसरी को व्यक्त करना संभव है !

    जवाब देंहटाएं
  12. युगल गजेंद्र जी की मेल पर प्राप्त प्रतिक्रिया:

    दीपिका जी,
    कुछ तकनीकी समस्या के चलते सीधे आपके पेज प्रतिक्रिया नहीं दे सकने के कारण आपके मेल पर प्रेषित है,
    सच है,की हम सबके भीतर बहती है नदी, काश की हम उसके आवेग को उसके प्रवाह को स्पर्श कर सके.
    एक अच्छी कविता.

    युगल गजेन्द्र

    जवाब देंहटाएं
  13. मेरे भीतर सुलगती है नदी,
    सवाल पूछती है
    जवाब मांगती है
    रूठती है, झगड़ती है।
    बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।
    छीन लाती है आसमान से उसका रंग
    इसकी लहरों में आग भी है।
    कभी जंगल में
    पलाश सी दहकती है नदी।
    बेहतरीन भाव संयोजन

    जवाब देंहटाएं
  14. मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
    वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    वाह बहुत ही खूबसूरत बिम्ब और बेहद खूबसूरती से लिखा है.

    जवाब देंहटाएं
  15. मेरे भीतर सुलगती है नदी,
    सवाल पूछती है
    जवाब मांगती है
    रूठती है, झगड़ती है।
    बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।
    छीन लाती है आसमान से उसका रंग
    इसकी लहरों में आग भी है।
    कभी जंगल में
    पलाश सी दहकती है नदी।
    ..man mein uthal-puthal machate bhavon ki nadi ke madhyam se sundar sarthak prastuti..

    जवाब देंहटाएं
  16. यह जो नदी है और इसमें जो भावनाओं की तरंगे हैं, उसके आवेग को पकड़कर कविता में आपने जो उफान लाया है उसके छींटों से हम भी नहीं बच सके हैं। नदी के प्रवाह से कविता की प्रवाह है।
    सुंदर!

    जवाब देंहटाएं
  17. बहुत सुन्दर भाव पूर्ण रचना

    जवाब देंहटाएं
  18. वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    बहुत सुन्दर भावपूर्ण और प्रेरक रचना..

    जवाब देंहटाएं
  19. WAH DIPIKA JI ....NADI KE GAHRE RAHSYON TK SAMJHA DENA BAHUT BADI BAT HAI....ABHAR KE SATH BADHAI BHI

    जवाब देंहटाएं
  20. मेरे भीतर सुलगती है नदी,
    सवाल पूछती है
    जवाब मांगती है

    मन एक नदी ही तो है...अपने में हर रंग समेटे सतत बहता हुआ...
    बेहद ख़ूबसूरत कविता

    जवाब देंहटाएं
  21. मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
    वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    kaavya, apne saath bahaa le jane mei
    safal rahaa ... !
    badhaaee !!

    जवाब देंहटाएं
  22. मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
    वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    kaavya, apne saath bahaa le jane mei
    safal rahaa ... !
    badhaaee !!

    जवाब देंहटाएं
  23. आपकी यह कविता दिल को छू गई । ये पंक्तियाँ तो शब्द माधुरी का बहुत सुन्दर उदाहरण हैं-
    मेरे भीतर मचलती है नदी
    छुई मुई सी, सकुचाई सी
    दुनिया के रंगों से भरमाई सी
    छुओ तो चिहुंकती है
    बेबात खिलखिलाती है

    जवाब देंहटाएं
  24. nadi se khud ka bimb bahut sundar laga pahli baar aapke blog par aai hoon saarthak raha aana jud rahi hoon aapki shrankhla se.

    जवाब देंहटाएं
  25. कभी मचलना, कभी संवरना, कभी ठहरना, तो कभी सुलगना... विविध मनःस्थितियों को नदी के ज़रिये बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया है। अच्छी रचना है, लेकिन मेरी व्यक्तिगत पसंद इससे पहले वाली रचना है।

    जवाब देंहटाएं
  26. दीपिका जी,
    नमस्ते!
    प्रवाह कायम रहे! अविरल.....
    आशीष
    --
    द नेम इज़ शंख, ढ़पोरशंख !!!

    जवाब देंहटाएं
  27. मेरे भीतर संवरती है नदी।
    निखरती है चांद को देखकर
    तारों की छांव में बहती नदी,
    खुद से भी बतिया लेती है।
    दिल में हिलोरें उठें,
    तो चूम लेती है किनारों को।
    भले खामोश हो शहर
    उफनती है नदी।

    जवाब देंहटाएं
  28. दीपिका जी ,आपकी दो-तीन रचनाएं देखीं अलग हैं भीड से ।नदी बेहतरीन कविता है । रमिया तो अच्छी है ही ।और हाँ मेरे ब्लाग पर आने के लिेये बहुत शुक्रवार हूँ ।

    जवाब देंहटाएं
  29. मेरे भीतर ठहरती है नदी।
    कभी निढाल होकर
    पत्थरों पर बिखरती है।
    हरदम बहती हुई,
    मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
    वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं
    हर रोज़ मेरे भीतर से
    गुज़रती है नदी...

    मनोस्थितियों का सही निरूपण इस कविता में साफ़ दिखता है. बेहतरीन कविता.

    जवाब देंहटाएं
  30. मेरे भीतर ठहरती है नदी।
    कभी निढाल होकर
    पत्थरों पर बिखरती है।
    हरदम बहती हुई,
    मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।
    वह नदी है, खुद संभलती है।
    ठिठकती है, मगर रुकती नहीं

    जि़ंदगी की धारा भी नदी की धारा के समान ही है।
    सुंदर अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  31. सुन्दर रचना है...मैंने भी इस विषय पर लिखा है, पर पोस्ट करना अभी बाकि है...आपकी अभिव्यक्ति कहीं मन की अतल गहराइयों को छू लेती है..शुभकामनायें..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
  32. शाएद कुछ भी अंदर नहीं रखा मन के , सब हमारे लिए लिख दिया...

    जवाब देंहटाएं