जुलाई 03, 2022

नदी


मचलती है नदी

छुई मुई सी, सकुचाई सी

दुनिया के रंगों से भरमाई सी

छुओ तो चिहुंकती है

बेबात खिलखिलाती है

नया ख्वाब आंखों में लिए

अजनबी शहर से गांठ जोड़ती

जड़ों को सींचती, दुलराती।

अनजान रवायतों से

सिहरती है नदी।

 

संवरती है नदी।

चांद को देखकर निखरती

तारों की छांव में बहती नदी,

खुद से बतिया लेती है।

जब उठती हैं दिल में हिलोरें

तो लाड़ से किनारों को चूम लेती है।

भले खामोश हो शहर

उफनती है नदी।

 

सुलगती है नदी,

सवाल पूछती है

जवाब मांगती है

रूठती है, झगड़ती है।

बेख़ौफ टकराती है पत्थरों से।

छीन लाती है आसमान से रंग

इसकी लहरों में आग भी है।

कभी जंगल में

पलाश सी

दहकती है नदी।

 

ठहरती है नदी।

कभी निढाल होकर

पत्थरों पर बिखरती है।

बहती हुई,

मगर कभी बेज़ार सी घिसटती है।

खुद उठती है, संभलती है।

ठिठकती है, मगर रुकती नहीं

हर रोज़ मेरे भीतर से

गुज़रती है नदी...