खिड़की पर चांद है
भीतर स्याह रात
रोशनी और सियाही में
हाथ भर का फासला है
खोल दे खिड़कियां
खींच ला चांद कमरे में
इंतज़ार बहुत हुआ
रात गुज़र जाने का।
चांद के साथ
गलबहियां डाले
उसी झरने के पास
बैठे रहें चुपचाप।
घुलती रहे रात
आहिस्ता आहिस्ता
चांदनी के प्याले में
आखिरी घूंट तक
और वक्त गुज़र जाए
फिर सहर होने तक।
तेरी चांदनी के सफहों पर
मन की स्याही से
हर रात लिखा करते थे
अपनी मुस्कुराहटें
अपनी उदासियां
आज जब शहर की रोशनियों में
तेरा अक्स फीका सा लगता है
बहुमंजिला इमारत की छत से
तू और दूर नजर आता है
मेरा बावरा मन
फिर वही मासूम चांद चाहता है
शायद तुझे भी है खबर
कि आज मेरे जज्बात सीले हैं
तभी तू रोया है शायद
आज बरसों बाद चांदनी गीली है.......