मार्च 22, 2012

रात...

 
सूरज सी दहकती हैं
मेरी धड़कनें
चांदनी में निचोड़कर
माथे पर रखो
ठंडी रात...
गर्म सांसों को
आराम आ जाए।
 
सरकने दो रात को
आहिस्ता आहिस्ता
चांद आता रहे खिड़की से
थोड़ा थोड़ा
बंद किवाड़ों से भी
आ ही जाएगा सूरज
बांट लेते हैं तब तक
आधी आधी रात
आधा आधा चांद
सुबह हिसाब कर लेंगे।

रात के होठों पर चुप सी लगी है
आंखें बोझिल हैं चांद की
आज की रात
बोलनें दें खामोशियों को
अपने अपने हिस्से के आसमान में
कोई टूटता तारा ढूंढें
कोई रूठी हुई मन्नत
शायद पूरी हो जाए।

बिखरने की आदत है,
यूं समेट लो मुझको
कि सहर होने तक
समूचा रहे जिस्म,
साबुत हो रूह
रतजगे बहुत हुए
आज सोने का मन है
सिरहाने रोना मत ऐ दोस्त
ख्वाब गीले हो जाएंगे।

मार्च 08, 2012

रमिया का एक दिन.... (महिला दिवस के बहाने)


झोंपड़ी के टूटे टाट से
धूप की एक नन्ही किरण
तपाक से कूदी है
कच्ची अंधेरी कोठरी में
हो गई है रमिया की सुबह
दुधमुंहा बच्चा कुनमुनाया है
रमिया ने फिर उसे
थपकी देकर सुलाया है।
सूख चुका है पतीले और सीने का दूध।
रात को भरपेट नमक भात खाकर तृप्त सोए हैं
मंगलू और रज्जी।

कोने में फटे बोरे पर
कोई आदमी नुमा सोया है।
जिसके खर्राटों में भी दारू की बू है
मगर इस बार उसने
बड़ी किफ़ायत से पी है।
हफ्ते पुरानी बोतल में
नशे की आखिरी कुछ घूंट
अब भी बची है।

आज मंगलवार है,
हफ्ते भर रमिया की उंगलियों और
चाय की पत्तियों की जुगलबंदी
आज उसके आंचल में कुछ सितारे भरेगी।
जिनसे रमिया की दुनिया में
एक और हफ्ते रोशनी होगी
एक और हफ्ते बच्चों को मिलेगा
दो वक्त पेट भर खाना
एक और हफ्ते ख़ुमार में रह पाएगा
रमिया का पति

और रमिया का क्या?
एक और पैबंद की मांग करने लगी है
उसकी सात पैबंदों वाली साड़ी
अब तो सुई-धागे ने भी विद्रोह कर दिया है।
आज रमिया ने ठान ही लिया है
शाम को वह जाएगी हाट
और खरीदेगी पैंसठ वाली फूलदार साड़ी
दस के बुंदे
और एक आईना।
नदी के पानी में शक्ल देखकर
बाल संवारती रमिया
अपनी पुरानी शक्ल भूल गई है।

इतराती रमिया ने आंगन लीप डाला है
आज वह गुनगुना रही है गीत।
उसके पपड़ियाए होंठ
अचानक मुस्कुराने लगे हैं।
साबुन का एक घिसा टुकड़ा
उसने ढूंढ निकाला है।
फटी एड़ियों को रगड़ने की कोशिश में
खून निकल आया है।
लेकिन रमिया मुस्कुरा रही है।
बागान की ओर बढ़ते उसके पांवों में
जैसे पंख लगे हैं।
आज सूरज कुछ मद्धम सा है
तभी तो जेठ की धूप भी
चांदनी सी ठंडी है।

पसीने से गंधाते मजदूरों के बीच
अपनी बारी के इंतज़ार में रमिया
आज किसी और दुनिया में है।
उसकी सपनाई पलकों में चमक रहे हैं,
पीली जमीन पर नीले गुलाबी फूल
बुंदों की गुलाबी लटकन।
पैसे थामते उसके हाथ
खुशी से सिहर से गए हैं।
और वह चल पड़ी है
अपने फीके सपनों में
कुछ चटख रंग भरने।

उसके उमगते पांव
हाट में रंगबिरंगे सपनों की दुकान पर रुके हैं।
उसकी पसंदीदा साड़ी
दूसरी कतार में टंगी है।
उसने छूकर देखा है उसे, फिर सूंघकर।
नए कपड़े की महक कितनी सौंधी होती है न?
रोमांच से मुंद गई है उसकी पलकें
कितना मखमली है यह एहसास
जैसे उसके दो महीने के बेटे के गुदगुदे तलवे
और तभी उसकी आंखों के आगे अनायास उभरी हैं
घर की देहरी पर टंगी चार जोड़ी आंखें।

रमिया के लौटते कदमों में फिर पंख लगे हैं
उसे नज़र आ रहे हैं दिन भर के भूखे बच्चे
मंगलू की फटी नेकर
गुड़ियों के बदले दो महीने के बाबू को चिपकाए
सात साल की रज्जी
शराबी पति की गिड़गिड़ाती आंखें
उसने हाट से खरीदा है हफ्ते भर का राशन
थोड़ा दूध, और दारू की एक बोतल।
मगर अबकी उसका इरादा पक्का है,
अगले मंगलवार जरूर खरीदेगी रमिया
छपे फूलों वाली साड़ी और कान के बुंदे।

मार्च 02, 2012

वह कौन सा मौसम था?


अलसाया सा दिन पड़ा था,
बादलों की रजाई ओढ़कर।
हांफ रही थी धूप
किसी बूढ़ी भिखारन सी।
हां, वो सर्दियां ही थीं शायद
जब हम मिले थे पहली बार,
मुझे याद है वो कंपकंपाना...
और पूरे बदन का सिहरना।

या वह वसंत था!
क्या तुमने भी सुनी थी,
कलियों के चटकने की आवाज़?
हवाओं की महक,
जब सांसों में भर आई थी।
कहीं पास बुलबुल भी चहकी थी।

या वह था तुम्हारा फेवरिट
बारिशों का मौसम,
जब गीले जज्बातों को
टांग दिया था उम्मीदों की रस्सी पर,
मेरी आंखों का खारा पानी
तुम्हारे होठों पर भी था।

वो दिन गर्मियों के तो नहीं थे?
याद है, कितनी तेज़ थी प्यास।
पसीजती हथेलियों में
चंद वादे रखे थे तुमने।
वह पहला तोहफा
अब तक बंद है मेरी मुट्ठी में।

जिस लम्हा तुमने
सारे मौसम मेरे नाम किए थे,
तुम्हें कैद कर लिया है मैंने
उसी एक पल में,
और बस कह दिया है
स्टैच्यू!

फ़रवरी 20, 2012

हिसाब



जब बिछड़े थे पुरानी राहों से
तेरे कांधे पे ही
सर रख के रोए थे।
ऐ शहर
तेरा इतना एहसान तो है हम पर।
मगर सर्द रातों में अक्सर
घूरे में जलते पुआल
की नर्म आंच याद आती है
तो तेरे हीटर की गरमी
बस रह जाती है
बदन के आस-पास
और रूह ठंडी रह जाती है।

हां तेरी रातें अंधेरी नहीं होतीं
तभी तो तारों को भी
शर्म आती है यहां।
मगर नाजुक सी बाती में भीगी रात का नशा
पुरानी शराब सा चढ़ता है,
तेरी रोशन रातों को क्या पता !

अब तो तेरी धड़कनों में
मेरी सांसें यूं घुली हैं।
कि मेरी लकीरें,
तेरी हथेलियों में बनी हैं।
मगर पुरानी हवाओं की खुश्बू पर
मेरा कोई अख्तियार नहीं।
ये तुझसे जो आशनाई है
दरअसल उसी ने सिखाई है।

तेरी रवायतों से,
कोई शिकवा नहीं है मुझको।
मगर जिस दिन पुरानी यादें
मेरे ख्वाबों का बोझ उठाने
का मेहनताना मांगेंगी।
कच्ची पगडंडियां मेरे कदमों के
असली निशान ढूंढेंगी।
जिस दिन आईना
मेरे नकाब के पीछे
एक चेहरा खोजेगा।
जब एक रूठा गांव
मुझसे जवाब मांगेगा।
तू भी तैयार रहना ऐ शहर,
मुझे हिसाब देने के लिए।

फ़रवरी 03, 2012

तीस्ता: तुम बेमिसाल हो



नाजों से खेली हो
पहाड़ों की गोद में।
लाड़ से पाला है हिमालय ने तुम्हें,
ऊंचे चीड़ों ने
छुपा कर रखा है,
सूरज की बुरी नज़र से।
पर कहां बंधन मानती हैं
तुम्हारी लहरें।
ठहर कर सोचना
तो तुम्हें आता ही नहीं।
शोखी का दूसरा नाम हो तुम।

जब उतरती हो पहाड़ों से,
कूदती, इठलाती, बलखाती।
किनारों को छूकर
यूं सर्र से निकल जाती।
मुझे पकड़ो तो जानें
कहकर शायद जीभ चिढ़ाती।
कदमों में पड़ी हर शै को ठुकराती।
तुम्हारा गुरूर सर आंखों पर।

कितनी हसरत से देखता है तुम्हें
वह दीवाना पुल
रोज गुजरते हुए।
न वह झुकता है,
न तुम हाथ बढ़ाती हो।
उसकी तरसती निगाहों के नीचे से
चुपचाप निकल जाती हो।
तुम जानती हो अपनी हदें।
तुम्हारी हर बात बेमिसाल है।

रंगित के साथ
लौट आता है तुम्हारा बचपन
सहेलियों सी गले मिलती, खिलखिलाती
बढ़ती जाती हो आगे
रुकना तुम्हारी आदत कहां।
कभी मुग्ध, कभी स्तब्ध करता है
तुम्हारा उफनता यौवन।
बुरुंश के सुर्ख श्रृंगार से
तुम्हारी हरी काया
और भी खिल उठती है।
तुम जानती हो
कहीं कोई इंतज़ार में है तुम्हारे।

तुम्हारी दीवानगी
नहीं जानती सीमाएं।
पहाड़ों की, मैदानों की, मज़हबों की, मुल्कों की।
बस एक ही धुन है,
एक ही मुस्तकबिल।
जब तुम्हारी आहट पाकर
वह बेताब हो उठता है,
तुम्हें समेटने को।
और तुम अधीर सी
समा जाती हो,
ब्रह्मपुत्र की बाहों में
तो यह ख्याल आता है
कि तुम तीस्ता हो,
या खामोश इश्क की एक दास्तान!

तीस्ता नदी भारत के सिक्किम की लाइफलाइन कही जाती है, यह खूबसूरत नदी इस छोटे से राज्य को एक अद्वितीय आकर्षण देती है। वह सिक्किम का पूरा सफर तय करके नीचे उतरते हुए पश्चिम बंगाल की सीमा से बाहर निकलकर बंगलादेश में ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है। रंगित उसकी एक मुख्य उप नदी है।

जनवरी 27, 2012

कैनवास


दुनिया के हर रंग से बेखबर
एक कोने में चुपचाप खड़ा था
वह खाली कैनवास।

कुछ दूर टंगे थे
कुछ चंपई चेहरे
कुछ भूरी आंखें
रोज़ कुछ लकीरें उभरतीं
रोज कुछ रंग बिखरते
और तैयार होती एक मुकम्मल तस्वीर।
हसरत से देखता रहता
वह खाली कैनवास।

एक दिन खिड़कियां खुलीं
और अंदर घुस आया
धूप का एक शरारती टुकड़ा..
शबे-फ़ुरकत गुज़र चुकी थी।
आंखें मिचमिचाकर खुली ही थीं कि
जादुई उंगलियों ने प्यार से छुआ
खाली कैनवास को।

कुछ नक्‍श कुनमुनाए,
कुछ रंग चहके।
कलाकार ने पहना दिया उसे सुर्ख जोड़ा
और उसके बेवा सपने सुहागन हो गए।
अब तस्वीर बन चुका था
वह खाली कैनवास।

अब वह बेचारा नहीं, बेरंग नहीं
मगर फख्र से
अपने सीने पर बिखरे रंग
दुनिया को दिखाता कैनवास
अपनी पहचान खो चुका है।
लोग अब उसे तस्वीर कहते हैं।
क्या किसी ने देखा है,
तस्वीर के पीछे?
रंगों और लकीरों की जिम्मेदारी ढोता कैनवास
आज भी कहीं अकेला है।

जनवरी 14, 2012

बंद कमरे का पुराना सामान..




कभी फुर्सत में बैठो
तो खोलना बरसों से बंद पड़ा वह कमरा
जहां यूं ही बेतरतीब बिखरा हैं
कुछ पुराना सामान।

किसी आले पर पड़ा होगा
एक पुराना अल्बम
मन करे तो देखना
कि मेरी उजली हंसी में घुलकर
तुम्हारी सुरमई शाम
कैसे गुलाबी हो जाती थी।
कि पस-ए-मंज़र में वो आसमानी रंग
मेरी उमंगों का था।
एक ही फ्रेम में कैद होंगी
तुम्हारी खामोशियां, मेरी गुस्ताखियां
और क्लोज-अप में होंगे हमारे साझे सपने।
कैद होंगे कहीं सावन के किस्से
जब बारिशों के बाद की धूप में
तुमने समझाया था मुझे
इंद्रधनुष का मतलब।

अलगनी पर टंगा होगा एक पुराना कोट
जिसकी आस्तीन से चिपके होंगे कुछ ख्वाब
और एक जेब में पड़े होंगे कुछ खुदरा लम्हे
देखना क्या उनकी खनक आज भी वैसी ही है।
एक जेब में शायद पड़ी मिले
मेरी हथेलियों की गरमाहट
जो चुराई थी मैंने तुम्हारे ही हाथों से
और एक मासूम से जुर्म की सजा में
उम्र कैद पाई थी।

पन्‍ना दर पन्‍ना खोलना
माज़ी की हसीन किताब
कि सलवटों में पड़े सूखे फूलों में
महक अभी बाकी होगी।
हवाओं ने जिसे इधर धकेला था,
वह आवारा बादल का टुकड़ा
लौट कर नहीं गया।
जब नए मौसम की सर्द हवा
खुश्क कर दे तुम्हारे ज़ज्बात
चुपके से खोलना यह बंद कमरा
कि पिछले मौसमों से बचा-बचा कर
थोड़े एहसास रखे हैं तुम्हारे लिए।

अलमारी के निचले खाने में
होगा एक पीला दुपट्टा।
जब सुनाई दे तुम्हें,
वसंत के जाते हुए कदमों की उदास आहट
आहिस्ते से खोलना वह दुपट्टा
कि उसकी हर तह में
जाने कितने वसंत कैद हैं।
रफ्ता रफ्ता खुलती हर तह के साथ
तुम देखोगे सुर्ख गुलमोहर में लिपटे
सकुचाए वसंत के लौटते निशां
जैसे गौने में
किसी नवेली के महावर लगे पांव
करते हैं गृहप्रवेश।

यहां से पिछली दीवाली
मैंने बुहार दिया था दर्द का हर तिनका।
उतार दिए थे सब जाले।
और यूं ही पड़ा रहने दिया था
सारा साजो-सामान।
तन्हा नहीं होने देगा तुम्हें
मेरे जाने के बाद,
बंद कमरे का यह पुराना सामान....