तुम श्रृंगार के कवि हो
मुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो।
अखबार के चटपटे पन्नों पर
कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।
तुम श्रृंगार के कवि हो
भूख पर, देश पर लिखना
तुम्हारा काम नहीं।
क्रांति की आवाज उठाने का
ठेका नहीं लिया तुमने।
तुम प्रेम कविता ही लिखो
मगर इस बार कल्पना की जगह
हकीकत में रंग भरो।
वहीं पड़ोस की झुग्गी में
कहीं कमली रहती है।
ध्यान से देखो
तुम्हारी नायिका से
उसकी शक्ल मिलती है।
अभी कदम ही रखा है उसने
सोलहवें साल में।
बड़ी बड़ी आंखों में
छोटे छोटे सपने हैं,
जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
तुमने नहीं देखा होगा।
रूखे काले बालों में
ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
अपनी कविता में
उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!
चुपके से कश भर लेती है
बाप की अधजली बीड़ी का
आग को आग से बुझाने की कोशिश
नाकाम रहती है।
उसकी झुग्गी में
जब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।
तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
मगर बंगलों के आदमखोर रईस
उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
उसकी झुग्गी के आगे
उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
वे उसे छूना चाहते हैं
भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्त।
सिगरेट की तरह उसे पी कर
उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।
उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
उन्हें परहेज नहीं,
उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!
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जवाब देंहटाएंउसकी झुग्गी में
जवाब देंहटाएंजब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।
....हर शब्द सशक्त आप निश्चित रूप से बधाई की पात्र हैं इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिये ! बधाई स्वीकार करें !
संजय भास्कर
चुपके से कश भर लेती है
जवाब देंहटाएंबाप की अधजली बीड़ी का
आग को आग से बुझाने की कोशिश
नाकाम रहती है।
उसकी झुग्गी में
जब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।
दीपिका जी हर पँक्ति में 'शोर' है !!
हर किसी को झकझोर कर उठा देने वाली इस रचना के लिए बधाई !!!
कमली का दर्द श्रृंगार के कवि की कलम से नहीं झरता। सशक्त रचना - आभार
जवाब देंहटाएंकविता थूकना !!!
जवाब देंहटाएंश्रृंगार के कवि....अपनी कल्पना से निकल आएँ...तो उनकी कविता ही गुम हो जाए..
जवाब देंहटाएंकिसी असली कमली का दर्द उन्हें नहीं छूता...
सशक्त एवं उम्दा रचना
बहुत सशक्त रचना .... कमली के जीवन का चित्र ऐसा कवि कहाँ लिख पाएगा ... सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकवि यदि समाज के दर्द और यथार्थ को नहीं देख पाता तो सही मायने में कवि बचा ही नहीं वह !
जवाब देंहटाएं...बहुत संवेदनशील रचना !
बस एक शब्द "अद्भुत "
जवाब देंहटाएंतुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
जवाब देंहटाएंमगर बंगलों के आदमखोर रईस
उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
आदमखोर जंगल में समूचा निगलने का रिवाज़ है
बहुत सशक्त रचना ..
मार्मिक और सटीक
उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
जवाब देंहटाएंनहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
उन्हें परहेज नहीं,
उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!.... बेजोड़
तो तुम्हारी कविता
जवाब देंहटाएंक्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!्…………कितना कडवा सच है ………कौन लिख सकता है? गज़ब का चित्रण्।
speechless....just awesome
जवाब देंहटाएंवाह दीपिकाजी .....बहुत ही सुन्दर !!!
जवाब देंहटाएंतुम श्रृंगार के कवि हो
जवाब देंहटाएंभूख पर, देश पर लिखना
तुम्हारा काम नहीं।
क्रांति की आवाज उठाने का
ठेका नहीं लिया तुमने
पूरी कविता चेतना जगाने वाली है ।
सादर
बेहतरीन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सोंचने पर विवश करती रचना...
ग़ज़ब की तस्वीर लगाई है और यह बिम्ब सर्वथा अनूठा है -
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
इस कविता के आक्रोश की आग काश मुझमें और मुझ जैसों में धधक जाता।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...
"तुम श्रृंगार के कवि हो
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो
अखबार के चटपटे पन्नों पर
कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।"
सुन्दर चित्रण...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
हक़ीकत बयाँ की आपने। श्रृंगार रस की कविता हो या फिल्मी पर्दे पर पैदा किया गया प्रेम का तिलिस्म सब तो वास्तविकता से परे ही होते हैं। पर कुछ जिम्मा पाठकों का भी है वो कितनी हद तक यथार्थ के निरूपण को स्वीकार करते हैं।
जवाब देंहटाएंgazab....adbhut....bas yahi kah paaungaa main...
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
जवाब देंहटाएंकोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नजरों से
यहां-वहां झांकते हो।
अच्छी उलाहना दी है आपने।
बढि़या कविता।
उसकी झुग्गी में
जवाब देंहटाएंजब से दो और पेट जन्मे हैं,
बंगलों की जूठन में,
उसका हिस्सा कम हो गया है।
निःशब्द करते भाव एक सुन्दर सत्य को उद्घाटित करती ,वहां कहाँ कविता जन्म लेगी .........
बहुत खूब ... जब देश जल रहा हो तो श्रृंगार की बातें ठीक नहीं लगती ... कलम की धार मोड़ देनी चाहिए ऐसे में ... लाजवाब प्रभावी रचना ...
जवाब देंहटाएंbahut prabhavshali rachna
जवाब देंहटाएं"तुम श्रृंगार के कवि हो
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो
बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट कबीर पर आपका इंतजार रहेगा ।
उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
जवाब देंहटाएंनहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
उन्हें परहेज नहीं,
उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!
sundar prastuti...
सुनीता जी ...बहुत ही बारीकी से कटाक्ष किया है आपने अपने शब्दों द्वारा ..............याद रही जाने वाली रचना !
जवाब देंहटाएंसोनरूपा जी मेरा नाम दीपिका है :) वैसे कविता पसंद करने के लिए शुक्रिया...
हटाएंवाह !! क्या बात है !! बहुत सशक्त लेखन है आप का . जुड़ रही हूँ आप से .
जवाब देंहटाएंसच में मन्त्रमुग्ध कर देने वाला लेखन
जवाब देंहटाएंवस्तुतः कविता केवल श्रृंगार वर्णन नहीं है..ापितु ये भी एक कवि का धर्म बनता है कि वो समाज के उस वर्ग की पीड़ा को जनमानस के सामने लाये जो शोषित है , पीड़ित है , दलित है। ये एक कड़वी सच्चाई है जिससे कतराकर नहीं निकला जा सकता
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति
"तुम श्रृंगार के कवि हो
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो
बहुत ही अच्छी कविता ।
मेरे नए पोस्ट "बिहार की स्थापना के 100 वर्ष" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
बहुत गहरी बात कह दी है... हिला देने वाली रचना है.. और कितने सरल शब्द! कोई आडंबर नहीं... साधारण शब्द ये दावा नहीं करते कि हम भाषा के किसी बहुत बड़़े ज्ञाता की रचना से रू-ब-रू हैं, लेकिन यह दावा ठोक-बजा कर करते हैं कि लिखने वाला गहरी संवेदना लिए है औऱ गहन अनुभूति को बखूबी व्यक्त करना जानता है...! बधाई....
जवाब देंहटाएंBehad Gahan!
जवाब देंहटाएंbahut alag aur bahut gehra vichaar..
जवाब देंहटाएंतो तुम्हारी कविता
जवाब देंहटाएंक्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि ...
गहन भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ...बधाई स्वीकारें
तो तुम्हारी कविता
जवाब देंहटाएंक्यों घबराती है कमली से।
इस षोडशी पर....
कोई प्रेम गीत लिखो न कवि ...
निःशब्द ,निरुत्तर करती हुई रचना तुम्हारी लेखनी को सलाम
इतनी बड़ी बात कही है कि कोई भी ऐसे विचार के अंदर जाए बगैर नहीं कह सकता. उम्दा रचना , मुबारक !
जवाब देंहटाएंVery nice post.....
जवाब देंहटाएंAabhar!
Mere blog pr padhare.
उन्हें परहेज नहीं,
जवाब देंहटाएंउसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
आपका भी मेरे ब्लॉग मेरा मन आने के लिए बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआपकी बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना...
आपका मैं फालोवर बन गया हूँ आप भी बने मुझे खुशी होगी,......
मेरा एक ब्लॉग है
http://dineshpareek19.blogspot.in/
बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंइस षोडशी पर....
जवाब देंहटाएंकोई प्रेम गीत लिखो न कवि!...adbhud.....bejod....
बेहद संवेदनशील रचना, शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंदीपिका जी इन्टरनेट कने.सहज सुलभ न होने के कारण इस सुन्दर कविता को पढ नही पाई । कवियों ने अधिकांशतः स्त्री के देह सौन्दर्य और उसके प्रति आकर्षण को ही कविता का विषय बनाया है । कविता के लिये कोमल सौन्दर्य चाहिये ।( या फिर आत्मीयता ) आकर्षण चाहिये । उद्दीपन के उपादान चाहिये । कमली पर वह कविता कैसे लिखे भला ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंउन्हें परहेज नहीं,
जवाब देंहटाएंउसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
तो तुम्हारी कविता
क्यों घबराती है कमली से।
etni saral bhasha me aapne bahut kuch kah diya ........
दीपिका जी, आपकी प्रस्तुति सुन्दर निति का पोषण कर रही है
जवाब देंहटाएंइसलिए आपको सुनीता कहना भी सार्थक है.
बहुत बहुत हार्दिक आभार इस अनुपम प्रस्तुति के लिए.
तुम श्रृंगार के कवि हो
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो
बहुत ही सुन्दर पंक्तिया ....मन को छू गयी ..
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंतुम श्रृंगार के कवि हो
जवाब देंहटाएंमुंह में कल्पना का पान दबाकर
कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
प्रेरणा की तलाश में
टेढ़ी नज़रों से
यहां-वहां झांकते हो।
अखबार के चटपटे पन्नों पर
कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।
Laajawaab, behatreen,
Prggressive contents and streightforwardness are natable.
कमाल की रचना ...प्रभावशाली !
जवाब देंहटाएंसशक्त सम्वेदनशील ....गहन अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंगहरे उतर गयी ...!!
बिना लाग-लपेट के कही गयी बात...अत्यन्त सशक्त कविता...सुन्दर है। सबसे अच्छी बात है कि पाठक शुरू करने के बाद बीच में रुक नहीं सकता...मैंने एक साँस में पढ़ डाली यह कविता।
जवाब देंहटाएंबेहद सशक्त अभिव्यक्ति. आजकल के सामाज की विकृत मनोदश का सटीक प्रस्तुतीकरण.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर. शुभकामनायें.
बहुत अच्छी कविता। सचमुच यह कविता बड़ी मर्मस्पर्शी लगी। बधाई!
जवाब देंहटाएंदीपिका जी आपकी कविताओं में जीवन के की रंग बिखरे हैं ....बहुत सी कविताओं को पढने के बाद यही लगा कि आप बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग बखूबी करती हो ....जो की कविता को अर्थपूर्ण बना देते हैं ....~!
जवाब देंहटाएंआप भी न -नेहरू जी कहाँ गंदे ,नाक बहते बच्चे को गोद उठाते थे ?
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