फ़रवरी 19, 2015

कांच की गोलियां



कई बार सोचा निकाल फेंकूं
बदन पर जोंक की तरह लगी
कुछ लाल, पीली, गुलाबी कांच की गोलियां
उन्हें खींचने के चक्कर में लहूलुहान हो जाती हूं खुद ही
कभी ख्याल आता है, काश कोई तूफान
झाड़-पोंछ ले जाए दिमाग से पुरानी इबारतें
और एक नई स्लेट बना दे मुझे

...
शाम के धुंधलके में मेरे आगे फैलती है एक हथेली
जानी-पहचानी, भरोसेमंद हथेली
उस पर फैली ढेर सारी कांच की गोलियां
मेरी आंखों में अचानक उग आते हैं जुगनू
नन्हीं उंगलियां आगे बढ़ती हैं
मेरी नजरें एकटक जमी हैं उस कांच की गोली पर
हलकी सिंदूरी गोली
जैसे अलसुबह झील में उतरता है सूरज।

उसे पाने के लिए मगर जरूरी है एक खेल
(यह बताया गया है मुझे)
कि भले ही मुझे अजीब लगे
मगर इसे खेलने से मिलती हैं टॉफियां, खिलौने
और मेरी पसंदीदा कांच की गोलियां

जानी पहचानी हथेली अचानक अजनबी हो जाती है
किसी किताब में देखी भेड़िए की आंखें याद आ गई है मुझे
डर कर आंखें बंद कर ली हैं मैंने
कसी हुई मुट्ठी में पसीज रही है सिंदूरी गोली।

फिर आसमानी
फिर हरी, फिर सिलेटी, फिर गुलाबी
एक-एक कर जमा होती कांच की गोलियों से
भर रहा है मेरा खजाना
मगर कुछ खाली हो रहा है भीतर
गले में अटक गया है दर्द का एक गोला
न बाहर आता है
न भीतर जाता है
कोहरे ने ढक लिया है मेरा वजूद
हर खटके पर बढ़ जाती हैं धड़कनें
हर दिन, हर पल
जंजीरों में कैद है मेरी रूह

एक दिन उस गोले को निगलकर
धड़कनों पर काबू करके
चमकती नारंगी गोली से नजरें हटाकर
मैं फेंक आती हूं सारी कांच की गोलियां उस हथेली पर।
डर ने अचानक पाला बदल लिया है
अंधेरे में भी साफ साफ दिखता है, स्याह पड़ता चेहरा  
दोनों हथेलियां सिमट रही हैं पीछे की ओर
कदम वापस मुड़ रहे हैं
और मैं सांस ले पा रही हूं।