अलसाया सा दिन पड़ा था,
बादलों की रजाई ओढ़कर।
हांफ रही थी धूप
किसी बूढ़ी भिखारन सी।
हां, वो सर्दियां ही थीं शायद
जब हम मिले थे पहली बार,
मुझे याद है वो कंपकंपाना...
और पूरे बदन का सिहरना।
या वह वसंत था!
क्या तुमने भी सुनी थी,
कलियों के चटकने की आवाज़?
हवाओं की महक,
जब सांसों में भर आई थी।
कहीं पास बुलबुल भी चहकी थी।
या वह था तुम्हारा फेवरिट
बारिशों का मौसम,
जब गीले जज्बातों को
टांग दिया था उम्मीदों की रस्सी पर,
मेरी आंखों का खारा पानी
तुम्हारे होठों पर भी था।
वो दिन गर्मियों के तो नहीं थे?
याद है, कितनी तेज़ थी प्यास।
पसीजती हथेलियों में
चंद वादे रखे थे तुमने।
वह पहला तोहफा
अब तक बंद है मेरी मुट्ठी में।
जिस लम्हा तुमने
सारे मौसम मेरे नाम किए थे,
तुम्हें कैद कर लिया है मैंने
उसी एक पल में,
और बस कह दिया है
स्टैच्यू!