जुलाई 21, 2012

मुखौटा



राह चलते लोग
अक्सर खो देते हैं
अपनी आंखों की रोशनी
नज़रों के आगे होती है
उनकी मंज़िल
और मंज़िल की साधना में
वे अर्जुन होते हैं।
उन्हें दिखती है
चिड़िया की बाईं आंख
और बाकी चीज़ें धुंधली हो जाती हैं।

राह चलते लोग
मोह-माया से निर्लिप्त होते हैं
उन्हें नज़र नहीं आते
लड़कियों के फटते कपड़े
उन्हें नहीं दिखते
मचलते मसलते हाथ
दीन दुनिया से बेखबर होते हैं
राह चलते लोग।

एसी कमरों में
टीवी देखते लोगों की
असंख्य आंखें होती हैं
उनका मन कराहता है
सड़कों पर उतरती इज्ज़त से।
उनके हाथों में
सुबह का अखबार,
चाय की प्याली होती है
और दिल में सुलगती हुई आह
कब बदलेगा हमारा देश!”
कब होगी नारियों की इज्ज़त!”

एसी कमरों में
टीवी देखते लोग
दुनिया की परवाह करते हैं।
वे उफनते हैं
देश के बिगड़ते हालात पर।
दुर्योधनों की दरिंदगी पर
उनका खून खौलता है।

टीवी देखते लोग
कभी सड़कों पर नहीं उतरते
सड़कों पर चलते है
बस अर्जुन के मुखौटे
अर्जुन को दिखती है
चिड़िया की बाईं आंख
और चीरहरण के समय
वे अंधे हो जाते हैं।


33 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर दीपिका जी...
    दिल में गहरे उतर गयी आपकी रचना....
    मुखौटे के पीछे की तस्वीर दिखा दी...

    अनु

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  2. आज हमारे समाज में मुखौटे ही सक्रिय हैं,इंसान तो न जाने कहाँ चला गया ??

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  3. बहुत सुंदर ...
    मुखौटे पहने समाज का दर्शन कराती उत्कृष्ट प्रस्तुति !

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  4. बस घर में बैठ कर चिंता जाता सकते हैं ....रोष प्रकट कर सकते हैं पर सड़क पर उतर कर आक्रोश नहीं दिखा सकते .... बहुत आक्रोशपूर्ण रचना

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  5. बहुत सही चित्र खींचा है आपने लोगों की उदासीनता का

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  6. राह चलते लोग
    मोह-माया से निर्लिप्त होते हैं
    उन्हें नज़र नहीं आते
    लड़कियों के फटते कपड़े
    उन्हें नहीं दिखते
    मचलते मसलते हाथ
    दीन दुनिया से बेखबर होते हैं
    राह चलते लोग।............. उन्हें दिखता है , वे देखना नहीं चाहते यूँ कहें रुक कर देखते हैं , उनका लक्ष्य ही यही है

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  7. लोग
    अक्सर खो देते हैं
    अपनी आंखों की रोशनी sach hai !!!

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  8. घर में बैठे लोग आक्रोश दिखाते है
    पर बाहर निकल कर कोई चिंता व्यक्त नहीं करता..
    लोग सिर्फ कहने को कहते है समस्या विकट है
    पर निराकरण को कोई आगे नहीं आता...
    बहुत ही उत्कृष्ठ व्यंग्य रचना...
    :-)

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  9. अर्जुन को दिखती है
    बस चिड़िया की बाईं आंख
    और चीरहरण के समय
    वह अंधे हो जाते हैं।

    बहुत ही सामयिक रचना

    सादर

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  10. सच को बयाँ करती पंक्तियां ....बहुत बढ़िया ..

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  11. गहरी कसक लिए है आपकी रचना ... कडुवे यथार्थ को बयान किया है ..

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  12. बहुत ही करारा कटाक्ष है..
    सब दूसरे का इंतज़ार कर रहे हैं....वे बदलेंगे समाज तब तक ये चाय के साथ ख़बरें निगलेंगे.

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  13. वक़्त के साथ खूबसूरत वार्तालाप |

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  14. अर्जुन को दिखती है
    बस चिड़िया की बाईं आंख
    और चीरहरण के समय
    वह अंधे हो जाते हैं।

    शानदार करारा व्यंग ए सी कमरे में बैठे पीड़ित लोगो के दिखावे के लिए

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  15. मुखौटे के पीछे का सच बयां कर गई आपकी अभिव्‍यक्ति ... गहन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति

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  16. अंतिम पंक्तियों में आकर, एक साधारण सी लगने वाली कविता असाधारण हो जाती है। बधाई।

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  17. क्या खूब पेश किया है समाज के दोगले चहरों को.. मुखौटा पहना ये समाज रंग बदलता रहता है!

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  18. टी.वी. देखते लोग सडकों पर नही उतरते ...वाह क्या बात है । एक पंक्ति में आपने सब कुछ कह दिया ।

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  19. और दिल में सुलगती हुई आह
    “कब बदलेगा हमारा देश!”
    “कब होगी नारियों की इज्ज़त!”


    waise naariyon ki ijjat hai bharat me......ha, kuchh gine chune asaamajik tatwon ki maansikta badalna jruri hai!

    rachna achhi hai...chintan ka vishay

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  20. बहुत परिपक्व रचना...

    अर्जुन को दिखती है
    चिड़िया की बाईं आंख
    और चीरहरण के समय
    वे अंधे हो जाते हैं।

    शुभकामनाएँ.

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  21. बहुत खूबसूरत कविता है। मुखौटों के पीछे के चेहरों को उजागर करती हुई। पहली बार आपका ब्लाग देखा, आपकी कविता की तरह ब्लाग भी खूबसूरत है और ब्लाग के नाम ने भी रतनपुर बागीचे के गीत की याद दिला दी। बधाई और शुभकामनाएं

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  22. बहुत अच्छी प्रस्तुति! मेरे नए पोस्ट "छाते का सफरनामा" पर आपका हार्दिक अभिनंदन है। धन्यवाद।

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  23. बेहद संतुलित विचारणीय पर कही निराशा और खिन्नता से भर देने वाली लिखती रहे अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा

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  24. सही कह रही हैं आप।
    अगर यहाँ रहते तो शायद टीवी के सामने बंद कमरे में खून खौलाने वाले लोगों की फेरहिस्त में शामिल रहते।

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  25. बिलकुल इतेफ़ाक रखती हूँ आपकी इस बात पर ........कुछ लोग सिर्फ़ बयानबाजी और तटस्थ से बने रहना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं !

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  26. अर्जुन को दिखती है
    चिड़िया की बाईं आंख
    और चीरहरण के समय
    वे अंधे हो जाते हैं।

    wow...bauhat sahi kataksh...!!

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  27. और चीरहरण के समय
    वे अंधे हो जाते हैं।......katu sach....

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