सितंबर 20, 2012

चांद और ढिबरी



बुधिया को पसंद नहीं
अंधेरी रातें

जब घुप्प अंधेरे में
डर कर जगी मुनिया
देख नहीं पाती
मां की दुलार भरी आंखें
सांवले माथे पर
बड़ी सी लाल बिंदी
तो रो-रोकर
उठा लेती है
आसमान सिर पर
और बुधिया की नींद से बोझल आंखें
कातर हो उठती हैं

पारसाल तीज पर खरीदी
कांच की चूड़ियां भी
बस दो ही रह गई हैं।
चूड़ियों की खनक के बगैर
खुरदरी हथेलियों की थपकियां
मुनिया को दिलासा नहीं देतीं
काजल लगी बड़ी बड़ी आंखें
जब अंधेरे से टकरा कर लौट जाती हैं
मां के सीने से लगकर भी सोती नहीं
अंधेरी रातों में
कितना रोती है मुनिया

परेशान बुधिया
अपनी झोंपड़ी में
रात भर जलाती है ढिबरी
हवाओं से आग का नाता
उसकी पलकें नहीं झपकने देता
रात भर जलती ढिबरी
कटौती कर जाती है
बुधिया के राशन में

तभी उसे अच्छी लगती हैं
चांदनी रातें
जब चांद की रोशनी
उसकी थाली की रोटियों में
ग्रहण नहीं लगाती
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।

41 टिप्‍पणियां:

  1. बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।...इस एक पंक्ति में जन्नत है

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  2. इस कविता में मुंशी प्रेमचन्द का स्त्री रूप आपके रूप में प्रकट हो गया है |बिलकुल साफ -सुथरी अभिव्यक्ति |आभार

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  3. उन्नत किस्म की कबिताई....खासकर 'पारसाल' शब्द काफ़ी समय बाद सुना !

    ...संवेदना को झकझोरती रचना !

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  4. बहुत सुन्दर दीपिका जी...
    इतना उत्कृष्ट लेखन पढ़ने के बाद खुद भी ऐसा ही कुछ लिखने की ललक जाग जाती है...

    अनु

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  5. महबूब का चेहरा या
    बच्चे का खिलौना नहीं
    बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।

    बेहद सशक्‍त भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ..आभार

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  6. बहुत खुबसूरत प्रस्तुति |
    बधाइयां -

    कुछ पंक्तियाँ
    सादर

    सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
    खिलखिलाती है
    महबूब का चेहरा या
    बच्चे का खिलौना नहीं
    बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
    .......... उत्कृष्ट रचना !!!

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  7. उत्कृष्ट भाव लिये लाजबाब प्रस्तुति,,,,

    महबूब का चेहरा या
    बच्चे का खिलौना नहीं
    बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।,,,सशक्त पंक्तियाँ,,,

    RECENT P0ST फिर मिलने का

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  8. तभी उसे अच्छी लगती हैं
    चांदनी रातें
    जब चांद की रोशनी
    उसकी थाली की रोटियों में
    ग्रहण नहीं लगाती
    सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
    खिलखिलाती है
    महबूब का चेहरा या
    बच्चे का खिलौना नहीं
    बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।

    ढिबरी गाँव में गरीब के घर को उजाला से भर देती है यहाँ ढिबरी ने हमारे मन को भी उजाले से भर दिया बहुत सुन्दर प्रतिक ....

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  9. जो रात पार लगा दे जीवन की, वही चाँद है।

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  10. वाह!
    इस कविता के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।

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  11. ढिबरी...अपना सा शब्द...बहुत प्यारी रचना!!

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  12. चाँद ढिबरी होता है और चाँद घडी भी होता है ।अद्भुत दीपिका जी । क्या तुम्हें याद है कविता भी पढी । कोई जबाब नही कोई शब्द नही । केवल --वाह...।

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  13. काश ये चाँद हमेशा खिला रहता!

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  14. वाह, बहुत उत्कृष्ट रचना

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  15. अभाव को जीते लोग अपने लिए जीने और ख़ुशियों का बहाना ढूंढ़ ही लेते हैं।
    एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।

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  16. सुकोमल कथ्य के साथ प्रतीकों का सुंदर समन्वय।

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  17. एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।

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  18. चाँदनी रात का बुधिया के लिए कितना महत्त्व है ...उसके राशन में कटौती नहीं होती .... रात भर जागना नहीं पड़ता आग के डर से ... बहुत गहन अभिव्यक्ति ।

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  19. इस कविता में बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता(आधुनिकता ) और प्रगतिशीलता की नकल और चकाचौंध की चांदनी में किस तरह अभावग्रस्त निर्धनों की ज़िन्दगी प्रभावित हो रही है, उसे कवयित्री ने दक्षता के साथ रेखांकित किया है।

    परेशान बुधिया

    अपनी झोंपड़ी में

    रात भर जलाती है ढिबरी

    हवाओं से आग का नाता

    उसकी पलकें नहीं झपकने देता

    रात भर जलती ढिबरी

    कटौती कर जाती है

    बुधिया के राशन में



    बुधिया का संसार अभावग्रस्त हिन्दुस्तान का संसार है .



    महबूब का चेहरा या

    बच्चे का खिलौना नहीं

    बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।



    जब चांद की रोशनी

    उसकी थाली की रोटियों में

    ग्रहण नहीं लगाती

    सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया

    खिलखिलाती है

    यही है सरकारी योजनाओं -नरेगा /करेगा /मरेगा की असली तस्वीर .नाम बड़े और दर्शन छोटे .



    पारसाल तीज पर खरीदी

    कांच की चूड़ियां भी

    बस दो ही रह गई हैं।

    चूड़ियों की खनक के बगैर

    खुरदरी हथेलियों की थपकियां

    मुनिया को दिलासा नहीं देतीं



    यही है खुले बाज़ार और "वाल मार्ट " का हासिल मनोज भाई .



    मनोज जी आपके आभारी हैं इतनी सशक्त दास्ताँ हिन्दुस्तान की आपने यथार्थ वादी कविता में सुनवाई .यहाँ रूपक असली है .कलागत चमत्कार नहीं .

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  20. न जाने किस तरह तो रात भर छप्पड़ बनातें हैं ,

    सवेरे ही सवेरे आंधियां ,फिर लौट आतीं हैं .

    यही है बुधिया का असल भारत .बहुत सशक्त रचना है "चाँद और ढिबरी ",बचपन की ढिबरी और लालटेन याद आगई .वो चूने का कच्चा पक्का मकान ,वो पिताजी का झौला ,सुरमे मंजन का ,वो छज्जू पंसारी से रोज़ चार आने का कोटोज़म खरीदना ,लिफ़ाफ़े रद्दी में बेचके आना ,माँ के कहे उसी दूकान पे ,दोस्तों से आँख बचाते ,सब कुछ तो याद आगया ये कविता पढके .

    पांचवीं से बारवीं कक्षा तक का दौर (१९५६-१९६३ )याद आगया .

    वही है हिन्दुस्तान आज भी .फिर भी रोज़ होता है यहाँ भारत बंद .

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  21. बेहद उम्दा रचना वाह क्या बात है

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  22. मन की गहराइयों में उतर गई आपकी पोस्ट ,बधाई सार्थक लेखन के लिए,

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  23. बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है...वाकई !

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  24. भाव, भाषा एवं अभिव्यक्ति सराहनीय है। मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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  25. महबूब का चेहरा या
    बच्चे का खिलौना नहीं
    बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
    गहन उत्कृष्ट और सुंदर भाव ...विस्तृत सोच लिए हुए ...बहुत सुंदर रचना ...बहुत ही सुंदर ...

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  26. बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये. मधुर भाव लिये भावुक करती रचना,,,,,,

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  27. Itifakn apka blog padha....sabhi rachnayen bhut khoobsoorti se poornta se man ke bhav vyakt karti hain

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  28. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  32. गरीबी से बहुत सी दुकानें चलती हैं. उनमें तथ तथाकथित
    प्रगतिशील साहित्य, विशेषकर कविता भी है. यदि गरीबी, भुखमरी, अत्याचार, आदि ना हों, तो प्रतीकात्मक रूप से भूखा मर जाएगा कवि! लिखेगा क्या? तब तो प्रेम, सौंदर्य एवं प्रकृति की कविता लिखना ही एक सहारा बचेगा.

    मात्र गरीब ही नहीं बिकता. गरीबी भी बिकती है. उसका एक मोल होता है. पर उसे बेंचने और खरीदने वाले गरीब नहीं होते. वे समर्थ भी होते हैं और समझदार भी. उन्हें पता होता है कि किसे कैसे बेंचा जाना है और कि क्या खरीदा जाना है.गरीब बस टुकुर-टुकुर यह खेल देखता है!

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  33. गरीबी से बहुत सी दुकानें चलती हैं. उनमें तथ तथाकथित
    प्रगतिशील साहित्य, विशेषकर कविता भी है. यदि गरीबी, भुखमरी, अत्याचार, आदि ना हों, तो प्रतीकात्मक रूप से भूखा मर जाएगा कवि! लिखेगा क्या? तब तो प्रेम, सौंदर्य एवं प्रकृति की कविता लिखना ही एक सहारा बचेगा.

    मात्र गरीब ही नहीं बिकता. गरीबी भी बिकती है. उसका एक मोल होता है. पर उसे बेंचने और खरीदने वाले गरीब नहीं होते. वे समर्थ भी होते हैं और समझदार भी. उन्हें पता होता है कि किसे कैसे बेंचा जाना है और कि क्या खरीदा जाना है.गरीब बस टुकुर-टुकुर यह खेल देखता है!

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