जब बिछड़े थे पुरानी राहों से
तेरे कांधे पे ही
सर रख के रोए थे।
ऐ शहर
तेरा इतना एहसान तो है हम पर।
मगर सर्द रातों में अक्सर
घूरे में जलते पुआल
की नर्म आंच याद आती है
तो तेरे हीटर की गरमी
बस रह जाती है
बदन के आस-पास
और रूह ठंडी रह जाती है।
हां तेरी रातें अंधेरी नहीं होतीं
तभी तो तारों को भी
शर्म आती है यहां।
मगर नाजुक सी बाती में भीगी रात का नशा
पुरानी शराब सा चढ़ता है,
तेरी रोशन रातों को क्या पता !
अब तो तेरी धड़कनों में
मेरी सांसें यूं घुली हैं।
कि मेरी लकीरें,
तेरी हथेलियों में बनी हैं।
मगर पुरानी हवाओं की खुश्बू पर
मेरा कोई अख्तियार नहीं।
ये तुझसे जो आशनाई है
दरअसल उसी ने सिखाई है।
तेरी रवायतों से,
कोई शिकवा नहीं है मुझको।
मगर जिस दिन पुरानी यादें
मेरे ख्वाबों का बोझ उठाने
का मेहनताना मांगेंगी।
कच्ची पगडंडियां मेरे कदमों के
असली निशान ढूंढेंगी।
जिस दिन आईना
मेरे नकाब के पीछे
एक चेहरा खोजेगा।
जब एक रूठा गांव
मुझसे जवाब मांगेगा।
तू भी तैयार रहना ऐ शहर,
मुझे हिसाब देने के लिए।